सबकुछ कहाँ किसी के पास
सब कुछ कहाँ किसी के पास,
लेकिन कुछ न कुछ सबके पास।
कौन धरातल मानव ऐसा
सुपरिचय जिसका न अभाव से,
शुष्क नयन से मात्र निराश,
सुखस्वप्नों की नहीं कोई आस।
सब कुछ कहाँ———————————————
स्पर्धा में मानव जीता नित,
विश्वास आत्म खोता भरपूर,
बिखर रहीं निर्धनता-वश ही,
उसकी जर्जर निर्बल स्वाँस।
सब कुछ कहाँ———————————————
सपने,श्रम,आकांक्षा उरतल,
किन्तु नहीं सुसाधन पर्याप्त,
लोचन वाचाल मौन-धारी,
अधरों पर फीके से सुहास।
सब कुछ कहाँ———————————————-
बदलें यदि दृष्टिकोण व सोच,
जीवन कलिकाएं खिल जाऐ,
मलिन अभाव अनुभूति हो ये,
सोल्लास मनु भी करे प्रयास।
सब कुछ कहाँ———————————————-
–मौलिक एवम स्वरचित–
अरुण कुमार कुलश्रेष्ठ
लखनऊ (उ.प्र)