सफलता
मैं चूमना चाहता हूं
अपनी सफलता को
जो पीछे छुपी है विफलता के
वो देख रही है मुस्कुरा कर मुझे
पर उसका देखना भी……
रास नहीं आ रहा विफलता को
दो -दो हाथ करने को तैयार है बस
मानों शिथिल कर देगी मेरी इच्छाशक्ति को
ऊपर से जेहन में हताशा का घर बना लेना…
अब बस जेहन को हताशा की बेड़ियों से अवमुक्त करना है…
शायद तभी मैं कर पाऊँगा विफलता से दो -दो हाथ…
वैसे मेरे अंतस के किसी कोने में…
जल रहा है इक उम्मीद का दिया
जो शायद आग लगा दे मेरी हताशा को
और बदल कर रख दे…..
जीतने की परिभाषा को
और मैं मिल पाऊं उससे
जिसे चाहा बस चाहा था मैंने
काश के ये वाकया पहली दफा हो जाए
सफलता वफ़ा और विफलता बेवफा हो जाए
फिर ताउम्र मैं चूमता रहूँ सफलता के हर एक पहलू को
और करता रहूँ विफलता से दो -दो हाथ
-सिद्धार्थ गोरखपुरी