सफ़रनामा
दिल की गहराइयों में जब गिर कर डूब जाता हूँ
तो जा कर रुम नम्बर फोर्टी टू में लेट जाता हूँ ।
किसी शाम की तन्हाई में सामने की लॉबी में
ढलते सूरज संग मुंडेर पर चाय की प्याली में ,
एक अनजाने सफ़र पर निकल कर के जहाँ
मैं खुद को बेखुद , बेसाख़्ता छोड़ आया हूँ ।
न मालूम तेज़ रफ़्तार के इस सुहाने से सफ़र में ,
जहां से चल दिया था फिर वहीं पर लौट जाता हूँ ।
क्षितिज पर सूर्य सी बिंदिया वो किरणों सी लगी भोवैं ,
खुले खेतों सा एक माथा कि जिस पर थीं सजी अलकें ।
जिन्हें सब सौंपकर सामां , हर लम्हा ज़िंदगी का मैं
चला था फिर जहां से एक अनजाने सफ़र पर मैं ।
तमाम ज़िंदगी से समय की रेत का घटना
अनगिनत पड़ावों से बिना ठहरे गुज़र जाना ,
अब इस ठहरे पड़ाव पर नफ़े नुकसान की गणना
बचे इस शून्य में से शून्य को अब क्या सिला देना
जो इस पल है वो अब है इसे जमकर के जी लेना ।
न रह जाये कोई ख्वाहिश अधूरी सी ,
न रह जाये कोई मन्ज़िल कि दूरी थी ।
जब तुम हो साथ , तो फिर क्या बात
कालातीत हैं हम तुम , समय की है क्या बिसात ।