सपनों की महानगरी
देख शहर की
ऊँची अट्टालिकाएँ,
मस्ती भरा
आलीशान जीवन
लिए स्वप्न सुनहरे
असंख्य करें
गाँव से पलायन !
यथार्थ दिखे
और सपने ढहें
शहर में जीना,
“जीना” न रहे
दो जून की रोटी की खातिर
दिन रात जीवन
चक्की सा चले !
सुबह – शाम
मुरझाई शक्लें
कुंठित – सहमें
थके से लोग
कभी लिए सीट
कभी ट्रेन से लटके
रोज़ करें सफ़र
जीने के लिए
कभी निराशा
कभी आशा की किरण
खटकाए दरवाजा
चल… निकल मुसाफिर
सपनों की महानगरी
फिर दूर गगन
अपने हिस्से का सुख
तलाशने के लिए ! !
अंजु गुप्ता