“सपनों की मंजिल”
“सपनों की मंजिल”
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घर से निकला था मैं,
गंतव्य तक पहुंचना मेरी मजबूरी थी
निढाल थी आँखे
उनके दर्शन की तलाश में,
मधुर मिलन की आश में।
राह थी पथरीली
जीर्ण-शीर्ण कंटक-विदीर्ण
अनन्त ठोकरों से युक्त
स्याह थी राते अमावश की
निरभ्र, झिलमिल सितारों से सजी ।
वृक्ष की कंपकंपाती पत्तियों की ओट में
शांत थी,नीड़ में दुबके पक्षियों की कुहक
घूरते हिंसक पशुओं की शिकारी नेत्रें
टकटकी लगाए…
अपलक निहार रही थी
किसी भटके आखेट को।
संप्रति रात्रि के कुछ प्रहर
अभी शेष थे बीतने को।
दिख रही थी, दूर से ही
मंजिल का ऊपरी टिला
पर शिथिल पर गए थे कदम
मंजिल निकट जान
उम्मीद की किरणें कुछ शेष थी
पर मन था डांवाडोल।
सोंचता…
कहीं ये रंगभूमि का
भ्रामक दृश्य तो नहीं
इतने में उचकता सपनों का संसार
और गिरती यवनिका
विस्मरित होती सारी उत्कंठा
नियंता, वाह! रे तेरी प्रकृति।
ये तो थी सपनों की मंजिल!
मौलिक एवं स्वरचित
© *मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – १३/०६/२०२१
मोबाइल न. – 8757227201