सपना और हकीकत
ख्वाइशों को अपनी दफन करके जिम्मेदारी का बोझ
उठालेटे हैं,
समय नहीं है कहकर अपने मन को समझा लेते हैं,
भूल जाते हैं खुद की पहचान और अपने वजूद को,
और जिम्मेदारी से जुड़े काम को अपनी पहचान बना
लेते हैं,
आता है जब समय अपनी ख्वाइश और सपनों को
फिर जीने का,
तो नादान दिल हमारा हमको हमसे ही अनजान बना
देता हैं,
करते हैं लाख कोशिशें हम उन सपनों को फिर से
जीने की,
पर अफसोस ना पहले जैसे हम और ना पहले जैसा
हमारा कोई सपना रह जाता है।