सन्नाटा
सूनी है वह चहारदीवारी
हंगामा था कभी डोलता।
पसरा वहां सियापा है,
सन्नाटा है अब बोलता।
दीवारें जो चीखती थी
आज मूक हो गए मौन
इक दूजे से हुए अजनबी
इशारों से पूछती तू कौन।
अंधेरों में चमकती हैं
प्रतीक्षारत सी आंखें
गले लगाने को आतुर
है जर्जर सी बाहें।
दरवाजा खुलने की
ये शायद है आवाज
टोह लेते कभी कान
क्या आया कोई आज।
कहां लुप्त हो गई है
वो बच्चों की टोली
कहीं गुल्ली डंडा था
कहीं कंचा गोली।
आपस में उनका था
लड़ना झगड़ना
हो जाना कुट्टी फिर
मिल के रहना।
हमीं ने तो काटे हैं
वे शाख जिन पर
खिलती थी हंसी
और खुशियां जी भर।
अब जुड़ न पाएंगी
वे शाख फिर से
न लौटेंगी दोबारा
खुशियां फिर से।
भागीरथ प्रसाद