सन्ताप
सन्ताप
काली अँधेरी रात
विलुप्त चाँद।
गगन में काले बादलों का डेरा
अम्बर के आनन को कालिमा ने घेरा।
चमक रही बिजलियाँ
ऊर्ध्वमुखी उँगलियाँ।
नीरव-भंजक गड़गड़ाहट
मन मे अकुलाहट।
घरों में दुबके हम
जाने कबतक सुबके हम।
द्विविध मानस,अलस,अवसाद
आतुर-उर,पुर विवाद।
बरसता है मेघ
या मन का उद्वेग।
टूटता सब्र,
दो-दो अभ्र।
अम्बुद क्यों बने जल-सिक्त?
कौन सा गम कर रहा रिक्त?
बरस,मिटा धरा का ताप
मिटेगा मन का सन्ताप।
-©नवल किशोर सिंह