सन्तान
जब हाथ बढ़े दो मुस्काते
हर सुबह रुकी हर शाम रुकी ।
तुतलाते शब्दों में जैसे
ये सारी कायनात रुकी।
वो पल सपनो से बीत गए
सुधा कलश अब रीत गए।
नन्हे मुन्ने बन ज्योति किरण
नव पगति पाठों के मीट भये।
अब अपना तन मन खाली है
जीवन ज्यों टूटी प्याली है।
आवो अब ये टुकड़े जोड़ें
जीवन की राहें कुछ मोड़ें।
छोड़ अपेक्षाएं पीछे अब
मोह बन्धन अपने तोड़ें।
जो ब्रह्मानंद पाया हमने
बन्द द्वार उसके खोलें ।
अभी दिन ढलना बाकी है
अभी भी चलना बाकी है।।