सन्तान
कविता
जब हाथ बढ़े दो मुस्काते
हर सुबह रुकी हर शाम रुकी।
तुतलाते शब्दों में जैसे
ये सारी कायनात रुकी।
वो पल सपनों में बीत गए
सुधाकलश सब रीत गए।
नन्हे मुंह बन ज्योतिकीरण
अपनी बाजी को जीत गए।
अब अपना तन मन खाली है
दिन रात ज्यों टूटी प्याली है।
आवो इन टुकड़ों को जोड़ें
जीवन की राहें कुछ मोड़ें।
अभी दिन ढलना बाकी है
अभी भी चलना बाकी है।।