सन्तराये दिन हमारे
सन्तराये
दिन हमारे,
कभी अमावस ज्यों थे कारे ,
चहक रही
खुशियाँ अब सारी ,
पहले जो
घुटती रहती थी।
मेड़ पर
जैसे भटकटैया,
अच्छी लगती
जो चुभती थी।
पीछे मड़ई
रहे मेंहदी ,
वहीं हथेली रंग उतारे …
चकवड़ जैसा
जो रहता था,
हरा -भरा
होकर उपेक्षित I
धान के पत्तें
व्याधिग्रस्त ज्यों ,
ज्यों फँफूद
बन रहे अलक्षित।
आज वो
तथाकथित लगतें हैं,
जो कमलू थे नीरज सारे..।
टूटे गाँव
गेह भी टूटे ,
अपनी बखरी
स्वयं उजारी l
छाँव ओढ़कर
कंकरीट की ,
ठूँठ हुई
जैसे बँसवारी।
थे गँवार जो
सभ्य हो गए ,
बदले सारे आज नजारे…।