सनातन ज्ञान-विज्ञान पर एक आघात !
सींचित वर्षों से सनातन तप-त्याग से ,
विराट दया-दान-सत्कर्म-धर्म से ;
चिरप्रतिष्ठित काशी का अधिष्ठान ,
जहां अध्येता-अध्यायी निष्ठावान !
जड़-चेतन प्राणों से समस्त सृष्टि ,
विशुद्ध परमात्म व्याप्त दृष्टि ।
गुढ-गुह्यतम् ऋचाओं का कौन कर सकता ध्यान …
यह क्रीड़ाओं का प्रारुप नहीं , जो हर कोर्इ कर ले संधान ।
पापी कायर अधम जड़ म्लेच्छ कहां कर सकता है,
कोई वीर-व्रति-विप्र-यति-तपस्वी, उर्ध्वरेता ही कर सकता है।
आज सरस्वती की प्रतिष्ठान में,
एक म्लेच्छ चला है ज्ञान देने ,
अपने कुटिल दूषित मुखों से ,
वर्णहीन अशिष्ट विधिहीन स्वरों को ले,
शिखा-शाखा-सूत्रहीन
संस्कृति-सभ्यता-संस्कार विहीन !
तामसी वृत्ति से घिरा
है चला सात्त्विकी ज्ञान देने !
अधम विधर्मी को नियुक्ति का क्या आधार-औचित्य,
कैसे नत-झुक ,विकृतिपूर्ण ज्ञान ले पाएगा कोई विप्र संपूज्य !
सनातन मूल्यों पर अतिक्रमण ,
धर्म विज्ञान संकाय में ,
कुटिल-काल स्वार्थ प्रेरित
‘अरि’ चला है गुह्यतम वैदिक शीश पर स्यंदन चलाने !
विकृतियों को मिलाने सगुण साकार में ,
अशुद्धता-निकृष्टता , उपहास के प्रसार में !
अतीत के अवशेषों से नवजागृत भारत आविर्भूत ,
शौर्य रक्त का मूल्य चुकाने , जग चुका है ब्रह्मसूत्र ।
सूर्य सा दीपित समुन्नत भाल,
डोलते दावाग्नि पर्वत कांपते दिक्काल !
जग चुका शिला सा वक्ष , चट्टान सी भुजाएं ,
जग चुका है ब्रह्मतेज , करालाग्नि काल रेखाएं !
पिघल रहा उत्तर में हिमालय का हिम ,
दस्युओं के विकट संताप से ,
भारत-भारती का मध्य भाग, अनंत वन ,
परिवेष्टित आक्रांत क्रूरतम् ताप से !
मत करो अशांत-कंपित , अधिक व्यथित दीप्त तारों को,
नभोमण्डल से प्रतिक्षारत बरसने को तत्पर अंगारों को !
संचार वैदिक विज्ञान का मलेच्छों से ना करो रे ;
काशीगंगा की जलधारा को बहुत कुपित नहीं करो रे !
ले रोक प्रलय की काल रेखाएं , छोड़ दूषित खोटों को ,
यदि हुऐ नहीं समाधान सत्य तो , झेल लेना आमंत्रित विस्फोटों को !
सबकुछ होगा राख, भष्मीभूत , कराल-काल-विकराल ,
यदि धधकती दुर्निवार कालाग्नि की आ धमकेगी ज्वाल !
✍? आलोक पाण्डेय ‘विश्वबन्धु’
वाराणसी,भारतभूमि
मार्गशीर्ष कृष्ण उत्पन्ना एकादशी।