वक्त को यू बीतता देख लग रहा,
खोदकर इक शहर देखो लाश जंगल की मिलेगी
विनम्रता, साधुता दयालुता सभ्यता एवं गंभीरता जवानी ढलने पर आ
उड़ रहा खग पंख फैलाए गगन में।
कुछ समझ में ही नहीं आता कि मैं अब क्या करूँ ।
जादू था या तिलिस्म था तेरी निगाह में,
.......... मैं चुप हूं......
मां के आंचल में कुछ ऐसी अजमत रही।
हारने से पहले कोई हरा नहीं सकता
एक बेहतर जिंदगी का ख्वाब लिए जी रहे हैं सब
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
ढल गया सूरज बिना प्रस्तावना।
गुजरे हुए लम्हात को का याद किजिए
भला कैसे सुनाऊं परेशानी मेरी