सत्य
सत्य जब सामने आता है ,
सह नहीं पाते उसकी कड़वाहट।
छिपाने की कोशिस करते हो,
तुम व्यर्थ ही चिल्लाकर।
मगर, नहीं जानते यह
सत्य छिप नहीं सकता।
शब्दों की गर्मी से चाहे
दफना दो कितना ही गहरा।
मिटेगा नहीं उसका अस्तित्व
सिर निकाल ही लेगा वह।
एक शूल बन कर हृदय में
तुम्हें कुरेदने को।
फिर कैसे मुँह चुराओगे
सनातन सत्य से तुम।
उसके बेधक प्रश्नो से
कैसे बच पाओगे तुम ?
अपनी भूलों से बहुत कुछ
मिलेगा तुम्हें सीखने को।
मगर पहले तुम सत्य से
मुँह चुराना छोड़ो।
तुम उसे स्वीकारना सीखो
शूल का दर्द मिट जाएगा।
तुम्हें अपने ही अंदर
नया इंसान नजर आएगा।
—प्रतिभा आर्य,
अलवर (राजस्थान)