सत्य होता सामने
सत्य होता सामने तो,
क्यों मगर दिखता नहीं,
क्यों सबूतों की ज़रूरत
पड़ती सदा ही सत्य को।
झूठी दलीलें झूठ की
क्यों प्रभावी हैं अधिक,
डगमगाता सत्य पर,
न झूठ शरमाता तनिक।
सत्य क्यों होता प्रताड़ित
गुजर परीक्षा-पथ सदा,
असत्य जबकि फैलता है
ज्यों गंध की शीशी खुले।
झूठ घबराता नहीं जब ये
फैलाता प्रपंच है,
उसके लिए कर्ण सबके
प्रिय धरातल मँच है।
सत्य घबराए मगर, कि
न कभी तौहीन हो,
न कोई ऊँगली उठे जब
सत्य मंचासीन हो।
सत्य आता सामने
और फिर दिखता भी है,
झूठ चाहे बाज़ार में
हर समय बिकता भी है।
सत्य होता सामने,
बस उसे पहचान लो,
वो निगाहें दृष्टि लो
सत्य जो पहचान लें।
(c)@ दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”