सत्य की खोज…
सत्य की खोज…
मैं एक दिन निकला
निपट अकेला,
भीड़ भरी दुनिया में
सत्य की खोज करने…
पर खोज….
सत्य से ज्यादा शायद खुद की थी मेरी,
मैं क्या हूं….?
मेरा अस्तित्व क्या है….?
क्या है निमित मेरा….?
मैं क्यों सतत प्रवाहमान हूं…?
फिर मुझे अहसास हुआ…
कि खबर भी नहीं है
इन्सान को खुद की,
और वो,
दुनिया में उस सत्य को खोजता है,
जो नहीं है उसके वश में,
वो यह भी नहीं जानता कि,
वो सत्य क्या है….?
उसका आदि और अंत क्या है…?
क्या है निमित उसका…?
बस इंसान केवल भटकता रहता है,
उद्देश्य से हीन,
एक भ्रम के जाल में….
एक अनवरत मृग मरीचिका में,
शायद
सत्य की खोज में…..?
सुशील कुमार सिहाग ‘रानू’
चारनवासी, नोहर, हनुमानगढ़