सत्यवती हो कविता
सत्यवती हो कविता
सदी के इस दशक में
लिख रहा है हर आदमी कविता
मुक्ति की छटपटाहट में
मुक्ति जाहिल अंधेरों से
भ्रष्टचार के बखेड़ों से,
अन्याय के थपेड़ों से
सुरक्षित रखने तेरी मेरी आजादी के घेरों को।
खेत खलिहान में खटता मजदूर
अपने घर परिवार से दूर
शहरी सड़कों पर
तारकोली काला शीशा-सा गिराता
या फिर मकानों पर मंजिले चढाता.
क्या नहीं आती सोंधी गंध
उन हाथों से
जो बुनते हैं ऐसे निर्माण की कविता
हमारे तुम्हारे सिरों पर आलीशान छत के लिये
क्या तुम्हारी कविता दे सके गी इन्हें
सिर ढकने के लिये छप्पर
या फिर खोखले शब्द जाल
बन कर रहें जायेंगे मुखबिर
लिखनी है कविता तो वह हो सत्यवती
आचरण में और सोच में
तभी तो हो पायेगी गति।