सजा…. एक स्त्री होने की
हम दोनों एक ही सफर पर तो निकले थे
वो भी साथ साथ
मुझे सफर के शुरुआत में ही कहा गया
कि मैं इस सफर के काबिल नहीं हूँ
पर मैं कहाँ मानने वाली थी ये दकियानूसी बातें
और पूरी लगन के साथ
निकल पड़ी नए रास्तों पर
चलते-चलते कई बार
मैं उससे आगे निकल जाती
और वो रह जाता पीछे
मुड़कर देखने पर दूर-दूर तक
कहीं पर भी तो वो दिखाई नहीं देता
कई गलियों में मैं ठहरी
कि वो फिर से साथ आ सके
पर वो साथ आकर भी
कुछ समय बाद फिर से पीछे छूट जाता
और मैं लग जाती फिर से
पूरी लगन से
सपनों को पूरा करने में
यूँ ही चलते चलते
मैं अक्सर जीत जाती उससे
और वो हार जाता मुझसे
फिर भी
अक्सर
उसे मिलते रहे ईनाम
एक पुरुष होने के
और
मुझे मिलती रही सजा
एक स्त्री होने की
लोधी डॉ. आशा ‘अदिति’
बैतूल