सज़ा
सज़ा
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हर ‘सज़ा’ हेतु,न्याय चाहिए;
पर ‘सज़ा’, सजा है मेज़ पर;
पाने व बचने वाले को , बस;
सच्ची-झूठी , उपाय चाहिए।
सज़ा तो देते हैं , ऊपर वाले;
जब होते हम , उनके हवाले;
सही सज़ा, उनको क्या पता;
जो कहलाते,काले कोटवाले।
दोषी को मिलती,’सज़ा’ नही;
सामने देते हैं जो,गवाह नहीं;
अब ‘सज़ा’ में भी,मजा मिले;
जैसे एक रोगी को,दवा मिले।
जुर्म करते वह, घूमते बेखौफ;
सज़ा तो बन गई , जैसे शौक;
यदि सज़ा मिले तो भी ठाठ है;
कहीं न मिले,फिर क्या बात है।
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स्वरचित सह मौलिक
..✍️ पंकज ‘कर्ण’
……….कटिहार।।