सजल
डा ० अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक
सजल
मेरे शहर का मंजर बेहद सुहाना हो गया
जबसे तुम्हारा इस तरफ रोज आना जाना हो गया
मुस्कुराई जिन्दगी उस रोज से बेहद मानो यकी
मुस्कुराई हो जबसे तुम कुछ इस तराह
सुखे हुए दरख्तों पे ज्युँ नये पत्तों का आना हो गया
मैं तो था बीमार आशिक इश्क का आलिम मुरीद
छूकर मुझे चंगा किया , अपने दिल में देकर जगह
रोशनी से मुझको तुमने अपनी जी भर नहला दिया
मैं फकीरी वेश दानिश जुल्म का मारा हुआ
प्यार ओं दुलार दे दे तुमने मुझे जीवन दिया
मैं तो था बीमार आशिक इश्क का आलिम मुरीद
छूकर मुझे चंगा किया , अपने दिल में देकर जगह
मेरे शहर का मंजर बेहद सुहाना हो गया
जबसे तुम्हारा इस तरफ रोज आना जाना हो गया
मुस्कुराई जिन्दगी उस रोज से बेहद मानो यकी
मुस्कुराई हो जबसे तुम कुछ इस तराह
सुखे हुए दरख्तों पे ज्युँ नये पत्तों का आना हो गया
झोलियाँ भर गई मेरी इतरे मौसिकी से या खुदा
हर गज़ल को सादगी से नगमा – एय – जन्नत किया
कैसे कहु एहसान तेरा मैं उतारू औ सनम
ता कयामत हुँ अभी तो बोझ तेरे से मैं दबा
कर हिमाकत इश्क में मैं तरन्नुम वा अदब उलझा हुआ
मैं तो था बीमार आशिक इश्क का आलिम मुरीद
छूकर मुझे चंगा किया , अपने दिल में देकर जगह
रोशनी से मुझको तुमने अपनी जी भर नहला दिया
सोचता हुँ आज तुमको मैं तुम्हारे प्यार पर उपहार दे दू
जो करम तुमने किये है इस जगत में मैं तुम्हें सम्मान दे दूँ
फिर कोई उपकार का मैं भी कोई उपकार दे दूँ
क्या मिलेगा इस जगत में, प्रेम के प्रतिकार क फल
कर सकेगा कोई दूजा जो किये तुमने जतन
उन सभी को मान कौतुक खिल उठा था इक सपन
मेरे शहर का मंजर बेहद सुहाना हो गया
जबसे तुम्हारा इस तरफ रोज आना जाना हो गया
मुस्कुराई जिन्दगी उस रोज से बेहद मानो यकी
मुस्कुराई हो जबसे तुम कुछ इस तराह
सुखे हुए दरख्तों पे ज्युँ नये पत्तों का आना हो गया