सच और झूठ
झूठ को सच की चादर में छिपते देखा हमने ,
आदमी को आदमी से दूर होते हुए देखा हमने I
अँधेरा हरतरफ फैलकर उजाले को बढ़ने से रोक रहा,
गरूर और ताकत का कारोबार सिर चढ़कर बोल रहा,
इंसानियत से दूर होकर बस इंसान तमाशा देख रहा ,
समुन्दर प्यार की नदियों को अपने अंदर समेट रहा I
झूठ को सच की चादर में छिपते देखा हमने,
आदमी को आदमी से दूर होते हुए देखा हमने I
फूलों के शहर में काँटों के व्यापारी फूल बेचने को आ गए,
फूल की खुशबू को सुंदर पुष्पहार से दूर करने को आ गए,
फूल और कलियों को उनके खिलने से रोकने को आ गए,
नज़ारा देखकर “ मेरे मालिक ” के आँखों में आंसू आ गए I
झूठ को सच की चादर में छिपते देखा हमने,
आदमी को आदमी से दूर होते हुए देखा हमने I
प्यार की नगरी में घनघोर अँधेरा देखकर फूल घबरा रहा,
काँटों का सौदागर अपनी किस्मत पर बहुत ही इतरा रहा,
“राज” सच का दिया अपने सलामत की दुआंए माँग रहा ,
“जहाँ के मालिक” तेरी ख़ामोशी सच की डगर दिखा रहा I
झूठ को सच की चादर में छिपते देखा हमने,
आदमी को आदमी से दूर होते हुए देखा हमने I
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देशराज “राज”
कानपुर