सच्चा हमसफ़र
“सच्चा हमसफ़र”
एक रोज़ मैं तन्हा ही चला जा रहा था,
अपने ही ख्यालों में खोया हुआ,
जागी हुई थी आंखे फिर भी सोया हुआ,
कुछ अनसुलझे सवालों में खोया हुआ,
एक सच्चे हमसफ़र की तलाश में
अचानक मेरी एक अजनबी से मुलाकात हुई,
तन्हाइयों में मेरी उससे कुछ बात हुई,
वो बोली, तू जहाँ भी जाएगा,
परछाई बनकर तेरे साथ रहूंगी,
मुझसे जितना दूर रहोगे
मैं उतना ही पास रहूंगी,
मैंने उससे अपने दामन को बचाया,
मैंने उस नादान को बड़ा समझाया,
कहा,” नासमझ अपने आपको को सम्हाल ले,
इस दुनिया के भंवर से अपने को निकल ले,
मैं तो अपनी ही धुन में डूबा चला जा रहा था,
एक रोज़ मैं तन्हा ही चला जा रहा था,
मगर वो अजनबी न मानी पीछे पीछे आती रही,
उसका दिल टूटने की आवाज मुझे सताती रही,
फिर मेरी एक हसीं शख्स से मुलाक़ात हुई,
तब मेरी ज़िन्दगी से बात हुई,
ज़िन्दगी ने मुझे देखा और मुस्कुराई,
उसके स्वागत में मैंने भी बाहें फैलाई,
ज़िन्दगी ने मुझे रोका और कहा,
“ऐ इंसान तन्हा तन्हा कहाँ चला जा रहा है,
क्यों अपनी ही राहों में कांटे बिछा रहा है,
मुझे तू अपनाकर हमसफ़र बना ले,
अपने जीवन की बगिया को खुशबू से महका ले,
मेरे साथ चलेगा तो तेरी दुनिया बदल दूंगी,
तेरे दामन में खुशियां ही खुशियां भर दूंगी,
मैंने भी ख़ुशी ख़ुशी ज़िन्दगी का हाथ थम लिया,
उसको मैंने राह-ऐ-ज़िन्दगी में हमसफ़र बना लिया,
एक अजनबी का दिल तोड़कर मैं राहें अपनी सजा रहा था,
एक रोज़ मैं तन्हा ही चला जा रहा था,
एक रोज़ मुझे ठोकर लगी,
चोट मेरे नाजुक दिल पर लगी,
कुछ दूर तक तो ज़िन्दगी मेरे साथ चली,
फिर वो मेरा साथ छोड़कर जाने लगी,
जवानी भर ज़िन्दगी ने लुत्फ़ लिया,
बुढ़ापा देखकर ज़िन्दगी घबराने लगी,
जब मैंने पीछे नजर घुमाई,
वो अजनबी अभी भी मेरे साये की तरह साथ ही नजर आई,
मुझे एहसास हुआ वो कोई और नहीं मेरी सच्ची हमसफ़र है,
मेरी मौत है वो जो मेरे साथ चल रही है,
ज़िन्दगी ने ताउम्र साथ निभाने का वादा कर,
दिल को तोड़ दिया और मेरे साथ की बेवफाई,
जिस मौत को मैंने दुत्कार दिया था,
जिसके अस्तित्व को ही मैंने नकार दिया था,
आखिर को आकर उसने ही मेरे दामन को थाम लिया,
ज़िन्दगी की नज़रों से बचाकर अपने आगोश में छुपा लिया,
मेरे साथ किया हुआ एक अनकहा वादा निभा दिया,
अब मुझे महसूस हुआ, मैं एक बेवफा का साथ निभा रहा था,
एक सच्चे साथी के प्यार को ही झुठला रहा था,
एक रोज़ मैं तन्हा ही चला जा रहा था,
एक सच्चे हमसफ़र की तलाश में,
एक रोज़ मैं तन्हा ही चला जा रहा था,
“संदीप कुमार”
जून, 2006