कट्टरता
मौजूदा दौर में “कट्टर” शब्द का एक नया मतलब सामने आया है। इस शब्द का विकसित नया अर्थ राजनीति में भी खूब प्रचलित हुआ है। सकारात्मक रूप से मैंने इस शब्द को देखा, पढ़ा और समझा है। कट्टर शब्द ऐसा बिल्कुल नहीं है, जैसा कि इसको पेश किया जा रहा है।
कट्टर का शाब्दिक अर्थ “अपने मत या विश्वास पर दृढ़ रहने वाला” है। जॉर्ज संतायन के अनुसार, ” जब लक्ष्य ही भूल गया हो तब अपने प्रयास को दोगुना बढ़ा देना कट्टरपन है। कट्टर व्यक्ति बहुत कड़ाई से किसी विचार का पालन करता है तथा उससे भिन्न या विपरीत विचारों को सहन नहीं कर सकता। अर्थात किसी भी धर्म, जाति, वर्ण या कोई भी राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक संगठन के लिए पूरी तरह समर्पित होकर कार्य करना, उसे मानना।”
मैं किसी एक धर्म विशेष की बात नहीं करता। मेरा मतलब है दुनिया के सभी धर्म आपस में एकता, भाईचारा, दया, करुणा, परस्पर सहयोग, दूसरों की मदद करना, जरूरत पर दूसरों के काम आना, दैनिक जीवन में संपादित होने वाले विभिन्न क्रिया-कलापों को बेहतर तरीके से करने का तरीका सिखाते हैं। धर्म अलग होते हुए भी अनगिनत समानताएं पाई जाती हैं।
इसके उलट आज के परिवेश में धर्म की परिभाषा ही बदल दी जा रही है। लोग धर्म को अपने फायदे के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। वैसे तो दुनिया का कोई भी धर्म गलत नहीं है। तमाम चीजें ऐसी हैं जो सभी धर्मों में कॉमन है। इसके बावजूद तमाम लोग ऐसे हैं जो धर्म को सिर्फ अपने फायदे के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। धर्म में अपने हिसाब से संशोधन, उसका अपने हिसाब से प्रयोग करना एक आम बात हो गई है।
मुझे नहीं लगता, कोई भी धर्म इस बात की शिक्षा देता हो कि किसी का दिल दुखाओ, किसी का सर कलम कर दो या किसी को पीटकर मार डालो। इस समय शायद हमारे देश में सबसे ज्यादा धर्म के नाम पर ही उन्माद और वैमनस्यता फैल रही है। अगर बात विचारों की दृढ़ता की है तो हमें अपने राष्ट्र भावना के प्रति, सामाजिक सोच, धर्म, राजनीतिक विचारधारा, आचरण, व्यवहार के प्रति दृढ़ यानी कट्टर होना चाहिए।
© अरशद रसूल