संस्मरण
अलौकिक संस्मरण……।
मीठी सी यादों का मैं लाई हूं
आवरण गुदगुदी यादों का।
किए जो भोले बचपन में ,
खुद के हसीन वादों का।
हां है मुझे आज भी स्मरण
एक प्यारा सा संस्मरण।
जब मैं बहुत छोटी थी
हां, बहुत खोटी थी।
लड़ती हर बात पर थी
और बहुत रोती थी।
बात इक रोज़ की है
बचपन में मोज़ की है।
गर्मियों के दिवस थे
पानी के लिए विवश थे।
हम सभी थे परेशान
मित्र मेरा कूल था।
१९वीं वह सदी थी
घर में उसके पूल था।
एक दिन मुझसे वो बोला
चल अपना घर दिखाऊं।
तुझे नहीं आता तैरना
चल तुझे मैं सिखाऊं।
आखिर हम बच्चे ही
हो गई फिर लड़ाई।
उसको मैंने खूब पीटा
और घर वापस आईं
मैंने फिर सौगंध उठाई
गांव अब जाऊंगी
संदूक में दादी की
मैं नदी लाऊंगी।
ला करके अपनी नदी को
आंगन में बहाऊंगी।
रोज़ फिर उस नदिया में
नाव भी चलाऊंगी,
कभी तैरूंगी तो
कभी नहाऊंगी।
नीलम शर्मा