*संस्मरण*
संस्मरण
साठ-सत्तर के दशक में टेसू के फूलों की होली
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बचपन में हमें टेसू के फूलों का बहुत आकर्षण रहता था। साठ-सत्तर के दशक में टेसू के फूलों का प्रचलन भी था। पंसारियों की दुकानों पर यह खूब मिलते थे।
होली से पहले हम इन्हें खरीद कर ले आते थे। होली की रात को जब गोबर की बरगुलियॉं घर के आंगन में जलाई जाती थीं और गन्ने में बॅंधी बालियां भूनी जाती थीं ,तब उसके बाद दहकती हुई आग पर एक बर्तन में टेसू के फूलों को पानी में भिगोकर रख दिया जाता था। रात-भर में पानी पर टेसू के फूलों का रंग खूब चढ़ जाता था। सुबह हम उसको कपड़े से छान कर दूसरे बर्तन में भर लेते थे। यह टेसू के फूलों का रंग बन जाता था।
टेसू के फूलों का रंग बहुत पक्का नहीं होता था। हल्का पीला रहता था। लेकिन हां, इतना जरूर था कि अगर सफेद कमीज के ऊपर पड़ जाए तो रंग पता चलता था। पीतल की पिचकरियॉं उस समय खूब चलती थीं । उसी से टेसू के फूलों का रंग भरकर खेल लिया जाता था।
पक्के रंगों की मनाही रहती थी। उस समय चेहरे पर पक्के रंग लगाने का रिवाज भी नहीं था।
हमने कहीं पढ़ा या सुना था कि टेसू के फूलों के रंगों से नहाना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है। अतः जो टेसू के फूलों का रंग बच जाता था, हम उस से होली खेलने के बाद नहा लेते थे । कोशिश यह भी रहती थी कि कुछ रंग बच जाए ताकि नहा लिया जाए। दस-पंद्रह साल टेसू के फूलों का रंग बनाने और खेलने का काम चला होगा। फिर उसके बाद यह सारा तामझाम बंद हो गया।
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लेखक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा ,रामपुर ,उत्तर प्रदेश
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