संस्मरण
पारलौकिक शक्तिया
दो-तीन घटनाएं याद आती हैं।
जिनसे हम स्वयं रु-ब-रु हुये हैं।
एक घटना है जब हम उन्नीस -बीस साल के थे।
मम्मी के देहाँत के बाद अंतिम क्रिया की तैयारियां चल रही थी। सारा घर खुला पड़ा था। मैं मम्मी के पास बैठी एकटक निहारे जा रही थी।तभी मेरी नज़र अचानक ऊपर से आती सीढ़ियों पर पड़ी। देखा-एक झकाझक सफेद धोती कुर्ते सिर पर पगड़ी ,श्वेतवर्ण ,रोबीले चेहरा वाला वृद्ध सीढ़ियों से उतर रहा है।उसने मम्मी की तरफ देखा ,हाथ जोड़े और तेजी से सीढ़ियां उतर गया। ‘ये कौन है ?’चाची से पूछा पर उन्हें कोई न दिखा। मुझे महसूस हुआ जैसे किसी ने कहा ‘इस घर की लक्ष्मी जैसी देवी गयी।”मैं तेजी से उठ सीढ़ियों के पास आई और उस व्यक्ति के पीछे चल पड़ी।वह व्यक्ति सीढ़ियों से उतर गैलरी में आया फिर घर के मुख्य द्वार के बाहर होकर घर की बगलवाली गली में चला गया।घर के बगल से शिक्षा विभाग की बगिया थी और दोनों के बगल में लगभग चार फुट चौड़ी कच्ची गली थी। गली में जाकर देखा तो चंद कदमों के बाद ही वह गायब हो गया। मैं आवाज लगाती रही,”कौन हैं आप..रुको तो।” किसी ने मुझे हिलाते हुये टोका कि यहाँ क्या कर रही हो ?हमने कहा .।वो.।वो पर वह देखते ही देखते गायब हो गया। बाद में पापा को बताया तो बोले घर के देवता होंगे जो घर छोड़ गये।उनकी आँखों में आँसू थे ।
मम्मी को गुजरे कुछ ही दिन हुये थे ।पापा शाम का भोजन करने के बाद वापिस दुकान चले जाते थे।दुकान बढ़ाने के बाद 9-10बजे तक घर आ जाते थे। उस दिन पापा ने अपने कमरे में ताला लगाकर चाबी कील पर टाँगते हुये कहा कि दरवाजा मत खोलना।और डरना भी नहीं।इतने बड़े घर में अकेले कभी डर न लगा।पर उस दिन कुछ अजीब सा लगा पर दिमाग झटक बाकी काम निबटाने में लग गयी।अभी आठ बजे के आसपास का ही समय रहा कि अचानक जोर जोर से आवाज आई “खोलो,दरवाजा क्यों बंद है ,खोलो।”मुझे लगा भतीजी शायद पापा के कमरे में सोती रह गयी और पापा को पता न चला।मैं जल्दी से चाबी कील से उतार कमरा खोलने लगी ,तभी पापा की बात ध्यान आ गयी। और मैं काँप गयी।
तभी दरवाजा भड़भड़ाने की भी जोर से आवाज आई। मैं जल्दी से दूसरी मंजिल की सीढ़ियों की तरफ गयी और भाभी को आवाज लगाई।आवाज जैसे गले से निकलने को तैयार न थी। उधर दरवाजा भड़भड़ाना और दबी आवाज में खोलो खोलो बराबर सुनाई पड़ रहा था।पाँच मिनिट में आवाज बंद हो गयी और मैं इतने में ही पसीने से नहा गयी। डर के मारे मेरी घिग्घी बंधी हुई थी और मैं सीढ़ियों पर दीवार से चिपकी बैठी थी।
पापा ने आकर पूछा कुछ हुआ था क्या?हमने बताया तो वह चकित रह गये। बोले आवाज किसकी थी।हमने कहा बच्चे जैसी।उन्होंने ताला खोला चारों तरफ कमरे को गौर से देखा।कहा तो कुछ नहीं पर गँभीर हो गये।आज भी याद आती है घटना तो रौंगटे खड़े हो जाते हैं।
तीसरी घटना उस समय की है जब मेरे दोनों बच्चे छ:आठ साल के थे। बेटी को सासु माँ यात्रा के लिए साथ ले गयीं महावीर जी। बेटा छः साल का था तो मेरे पास ही था।
एक दोपहर वह सोया हुआ था अचानक उठ कर जोर जोर से रोने.लगा ..मम्मी ,अम्माँ ने दीदी को छोड़ दिया है वो रो रही है ।मम्मी दीदी को बचा लो । किसी भी तरह चुप होने का नाम न ले। फोन कहाँ करती ,मोबाइल भी न था। एक घंटे तक बेटा तड़प तड़प कर रोता रहा। बैचेनी मुझे भी हो रही थी ,पर तब कारण समझ न आया।
रात के आठ बजे के आसपास एसटीडी काल आया ।तब पता लगा कि कुछ सामान खरीदते वक्त सासु माँ को बेटी का ध्यान न रहा और ननद व देवरानी के साथ आगे चली गयी थी। बेटी इधर उधर खोजती रही आवाज लगाती रही।
अच्छी बात यह थी कि जहाँ,सासु माँ और देवरानी ने छोड़ा था वहाँ से वह हटी नहीं। हाँ रोते रोते बेटे को और मुझे पुकार रही.थी।और उसी समय बेटे को अहसास हुआ।
पता नहीं कौनसी शक्ति थी जिसने बेटे को संकेत दिया।शायद भाई बहनों के बीच सशक्त स्नेह की डोर की शक्ति ही थी।
पाखी