संस्मरण-आरक्षण एक कोढ
संस्मरण-आरक्षण एक कोढ
बात मई 2008 की है,हम मुम्बई रहते थे और गर्मी की छुटियाँ बिताने अपने शहर मथुरा आते थे।पति जी को ऑफिस से इतना लम्बी छुटियाँ नही मिलती तो मैं और दोनों बच्चे अकेले ही आया,जाया करते थे।
हम ख़ुशी-ख़ुशी मथुरा आ गए और छुटियाँ के मजे ले रहे थे।पूरा एक महीना परिवार के साथ,मम्मी और सासु माँ दोनों यही थे।तो दिन कैसे बीत गये,पता ही नही चला।जाने का समय नजदीक आने वाला थे ।जून 1 वीक से स्कूल शुरू हो जाते है,तो वापस लौटना था।
टिकट पहले ही कॉन्फॉर्म थी,तो चिंता की बात नही थी।लेकिन अचानक ये गुजर आंदोलन शुरू हो गया था।सारी ट्रैन कैंसिल हो गयी थी।
गुजर ट्रैन की पटरी को तोड़ के ट्रैक पर बैठ के आरक्षण की मांग कर रहे थे।पुलिस प्रशासन नतमस्तक होता दिखाई दे रहा था।लोगो ने पटरी पर ही जमाव क्र रखा था और किसी को आने जाने पर पत्थर बरसा रहे थे।
दिन निकल रहे थे,आखिरकार चार दिन बाद सरकार समझौते को तैयार नही थी,ट्रेनों के रास्ते बदल कर मुम्बई ले जाया जा रहा था।वहाँ मेरे वापस जाने का दिन आ रहा था।अकेली थी तो डर तो लग ही रहा था,वही लोगो को टिकट नही मिल रहे थे जाने की तो मेरी जेठानी और उन की बड़ी बहन मेरे साथ चलने को तैयार हो गए थे।
मेरी दो सीटें बुक थी,मेरी और बड़े बेटे की।एक सीट उन को दे देना का बोल दिया था।पर उस दिन तक ट्रेन कौन से रुट से जायेगी ,कैसे और कब कुछ पता नही था।
भगवान की कृपा से सुबह न्यूज़ सुनी तो पता चला गुजर और सरकार कुछ शर्तों पर मन गये और ट्रैन अपने रास्ते ही जायेगी।
सुबह की ट्रेन थी तो मै ,अपनी जेठानी और बच्चों के साथ स्टेशन पहुँचे।जेठानी जी की बड़ी बहन स्टेशन पर ही मिल गई थी।
“एक से भले दो,दो से भले चार”
ये सोच हम तीनों ट्रैन का इंतजार कर रहे थे,पूरा 4 घंटे लेट थी ट्रैन और आंदोलन के बाद जाने वाली पहली हमारी ही ट्रेन थी।
क्या बताऊँ कैसा अजीब सा माहौल था,लोगो की भीड़ बढ़ती ही जा रही थी,एक हफ्ते के बाद ट्रेन जा रही थी कोई।
जैसे-तैसे ट्रैन पटरी पर आ ही गयी।मुम्बई रह कर भीड में चढ़ने की आदत बच्चो की भी थी और हमारी भी,बड़ी जदो-जहद के बाद हम तीनों चढ़ गए ट्रैन में।सीट ढूंढना मुश्किल था,फिर भी जैसे-तैसे कर के अपनी सीट तक पहुँचे।
दुपहर के 2 बज रहे थे,हम ने भी भगवान का नाम लिया,मथुरा से भरतपुर होती हुए ट्रैन मुम्बई जा रही थी।लगता था हम से ज्यादा ड्राइवर डरा हुआ था,धुक-धुक कर, रेंगती हुए गाड़ी आगे बढ़ रही थी।
बाहर गाव के लोगो को शायद पता नही था,की समझौता हो गया है। सब ट्रैन को घेर के खड़े हुए थे,पत्थरो को हाथ में लिए,बरसा रहे थे ट्रैन पर।
हम सब के दिल की धड़कनें बड़ रही थी,ट्रैन की रफ्तार से बहुत तेजी से।भगवान का नाम का जाप हम लोग कर रहे थे और बाह्रबके लोग कोशिश कर रहे थे की कैसे ये ट्रैन सात दिन बाद ट्रैक पर से निकल रही थी।लोगो की भीड़ इक्कठा थी, ट्रैन धीरे-धीरे ही सही भरतपुर पार कर गयी।
अब जान में जान आ रही थी,एक तो गर्मी का मौसम,ना पानी की सप्लाई थी अंदर ना खाने की और उस पर लोगो की भीड़।
कोई टीटी भी नही आ रहे थे,कि शिकायत भी कर सको।
बच्चे परेशान थे,वो तो हम अपने साथ पानी और खाने का पूरा इंतजाम कर के लाये थे।
पानी की जगह बर्फ को भर के लायी थी,थर्मस में।तो बच्चों को आराम था थोड़ा।
इतना कठिन सफर और हम तीनों औरते अकेली थी।पर हिम्मत थी,तो सफर कट हो गया।
हम मुम्बई और स्टेशन पर पति और जेठ जी लेने आये थे।
उन को देख कर ख़ुशी के आंसू आ गये, हिम्मत तो कर ही ली थी पर फिर भी पति और परिवार से ना मिलने का डर था दिमाग में।
एक सवाल पुरे सफर में दिमाग में कोध रहा था,कि क्या उन गुजरो को किसने हक दिया की वो लोगो की जान से खेले।पुलिस का नमो निशान भी नही था,मुसाफिरों की मदद के लिए।
कितना आसान था,गुजर आरक्षण बस ट्रैन की पटरी तोड़ उस पर बैठ जाओ,पास में पत्थरो को जमा कर लिया जाये बरसाने के लिए ।पुलिस और प्रशासन हिजड़ो की तरह आत्म समर्पण कर देगी।
इतना आसान है ये सब तो क्यू न जनरल क्लास के लोग भी पटरियों पर उतर आये।कुछ तोड़-फोड़ करे और जमाव कर बैठ जाये।
पूरा 200 करोड़ का नुकसान हुआ इस गुजर आरक्षण में और 208 ट्रेन को कैंसिल करवाया गया था।
3 करोड़ टिकट कैंसिल हुए।
क्या किसी ने सोचा ये आरक्षण कोढ़ की तरह,देश को बीमार करे जा रहा है।
✍संध्या चतुर्वेदी