संसार एवं संस्कृति
इस ब्रह्मांड में दो विचार हैं एक है संसार और दूसरा है संस्कृति। संसार और संस्कृति दोनों ही भौतिक जगत है और दोनों ही स्प्ष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। जहाँ संसार दिखाने वाली हर चीज है वहीं संस्कृति मानव सभ्यता के इर्दगिर्द पाए जाने वाली भौतिक एवं अभौतिक स्थिति है। संसार की रचना परमेश्वर या श्रष्टि के रचयिता ने की है वहीं संस्कृति की रचना संसार के अंदर ही मनुष्यों ने की है। हालांकि मनुष्यों ने संसार की वस्तुओं से ही अपनी संस्कृति एवं सभ्यता की रचना की है मगर अपनी जरूरतों अनुसार। इसलिए संस्कृति एवं सभ्यता में जो कुछ भी होता है अच्छा या बुरा उसके लिए परमेश्वर जिम्मेवार नहीं है, उसके लिए खुद मनुष्य जिम्मेवार है। इसलिए संस्क्रति एवं सभ्यता के अंदर मिलने वाले दुख एवं सुखों का कारण केवल मनुष्य ही है ना कि परमेश्वर। अतः अगर मनुष्य परमेश्वर की इस कारण से आराधना करता है कि ईश्वर उसकी पूजा से प्रशन्न होकर उसके दुखो को दूर कर देंगे जैसे उसकी नौकरी लगा देंगे, उसकी गृहस्ती एवं व्यवसाय को तरक्की देंगे तो यह एकदम मूर्खता पूर्ण सोच है क्योंकि उन्होंने जो बनाया ही नहीं वो उसके लिए स्वयं को क्यों जिम्मेदार मानें और क्यों उसमें हस्तक्षेप करें। जब मनुष्य ने संस्क्रति एवं सभ्यता की रचना की तो उसने खुद को ईश्वर दूर कर लिया उसकी बातें मनाने से इनकार कर दिया तो फिर अब वह मनुष्यों की संस्कृति में क्यों हस्तक्षेप करेगा।
मगर ईश्वर ने मनुष्यों की संस्कृति में सबकुछ ठीक रहे उसके लिए भी एक व्यवस्था की जिसका अर्थ है कर्मफल सिद्धांत। अर्थात जो मनुष्य जैसा कर्म करेगा वैसा ही फल पाएगा और उन किए कर्मो को मनुष्य ईश्वर की पूजा आराधना करके नष्ट नहीं कर सकता हाँ ईश्वर की पूजा आराधना करके मनुष्य स्वयं को मानवी संस्क्रति से दूर करके खुद को पुनः ईश्वर की नैसर्गिक इच्छा के अनुरूप ढाल सकता है, जिस प्रकार जानवर ईश्वर की इच्छा अनुरूप खुद को रखते हैं। इसी कारण जानवर जीवन पर्यंत सुख एवं दुख की भावनाओं से हमेशा दूर रहते हैं और केवल जीवन जीते हैं। बिल्कुल यही बात गीता में कृष्ण कहते हैं कि, “निश्वार्थ कर्म कर और फल की चिंता ना कर”। जो कि मनुष्य संस्क्रति में रहते हुए इस तरह सोचना एवं करना असंभव है।
ईश्वर नहीं चाहता कि वह सभ्यता या संस्क्रति की रचना करे क्योंकि उसकी कोई जरूरत ही नहीं है केवल मनुष्यों ने उसकी जरूरत बना रखी है।
अगर अपने रिश्ते के बीच कोई गलत व्यवहार करता है, गलत आचरण करता है तो ईश्वर उसे कोई श्राप नहीं देगा क्योंकि मनुष्यों द्वारा बनाई गई संस्क्रति एवं सभ्यता के लिए नियम कानून भी मनुष्यों ने ही बनाए हैं ना कि ईश्वर ने। इसलिए कोई समाज में कितना दुराचरण करे, क्रूरता करे वह ईश्वर के पाप का भागी नहीं बनता बल्कि अपने कर्मों के फल का भुक्तभोगी बनता है। जैसे रावण अगर श्रीराम की पत्नी माता सीता का अपहरण ना करता तो शायद ही भगवान राम उसे मारते और वह वैसे ही जीता रहता जैसे पहले जीता चला आ रहा था। मगर उसने अपने से ज्यादा शक्तिशाली व्यक्ति की पत्नी को चुराया तो उसे अपने कर्मो का फल मिला ना कि ईश्वर ने उसे मारा हो या श्राप दिया हो।
इसलिए मनुष्य समाज में जो कुछ भी घट रहा है अच्छा या बुरा उसके लिए ना तो परमेश्वर किसी को दंड देगा और ना ही किसी को आशिर्वाद देगा। भले ही किसी भी व्यक्ति ने कितने भी शुभ कर्म किए हो परमेश्वर कभी उसकी सहायता नहीं करते और जब उसकी मृत्यु होनी होती है तो होती है जब उसके जीवन में दुख आने होते हैं तो आते हैं। इससे फर्क नहीं पड़ता कि मानव संस्क्रति के लिए उसका क्या योगदान था। बिल्कुल यही स्थिति बुरे लोगो के लिए होती है। कुछ बुरे लोग जीवन भर बुरा कर्म करते हैं मगर आनंद से जीते हैं और हम सोचते रहते हैं कि ईश्वर उनके साथ बुरा क्यों नहीं करता? जबकि सच तो यह है कि ईश्वर के लिए ना कुछ बुरा है ना कुछ भला है उसके लोए तो सब कुछ एकसमान है जैसे ईश्वर को ना तो शेर से कोई शिकायत जो हिरन को मारकर खाता है और ना ही हिरन से कोई हमदर्दी जो जीवन भर शेर का शिकार बनता है। यह तो संसार है ईश्वर ने उसकी रचना उसी प्रकार ही की है। इसलिए मनुष्य सभ्यता या संस्क्रति में ईश्वर का कोई हस्तक्षेप नहीं फिर चाहे आप उसकी पूजा करो या ना करो। अगर हाँ पूजा करोगे तो ईश्वर इंसान को मनुष्य संस्क्रति से दूर कर उसे अपनी नैसर्गिक संसार से जोड़ देगा, जिस प्रकार बाबा जी और आध्यत्मिक लोग जुड़े रहते हैं।