संवेदन-शून्य हुआ हर इन्सां…
सहमी सी है आज कलम,
शब्द उदास हैं खोए-खोए !
जग में कितनी पीड़ाएँ हैं,
आखिर कोई कितना रोए !
मानव ही जब मानव की,
व्यथा समझ न पाता है।
शब्द मिल भी जाएँ, मगर
अर्थ कहीं दब जाता है।
भारी बोझ गमों का इतना,
मन है नाजुक, कैसे ढोए !
बढ़ीं दूरियाँ नेह- नातों में।
तन्हा हैं सभी हसीं रातों में।
संवेदन शून्य हुआ है इन्सां,
अपनत्व कहाँ अब बातों में।
बिखरे मन के मनके सारे,
कौन संजोए, कौन पिरोए !
पल सुख के बस दो चार,
दुखों का है हर सूं अंबार।
मरुभूमि से इस जीवन में,
दहकते शोले और अंगार।
बंजर भाग्य-जमीं पे कोई,
बीज आस के कैसे बोए !
जग प्रपंच है घोर छलावा,
समझ यही बस आता है।
सत्य निकटतर आते-आते,
बीच में कहीं गुम जाता है।
प्रश्न अनुत्तरित खड़े सामने,
तुम्ही कहो कोई कैसे सोए !
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)