संवेदना
“संवेदना”
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हे ! दीपशिखा
क्या बतलाऊँ ?
मेरे दिल के दर्द को !
छोड़ गया वो
मुझको तन्हा !
कैसे समझाऊँ मर्द को ||
आँखें नम हैं !
कपोल हैं गीले !
अश्रु-जल की धारा से |
पूछ रही हूँ !
मीत का रस्ता
भोर उगे उस तारा से ||
सुबह हुई
अब रात गई !
ना वो आए ना मेरी नींद |
फिर क्यों उनको ?
जोश चढ़ा था !
आतुर थे बनने को बींद ||
मैं भी जली !
तू भी जली !
हे ! दीपशिखा इस रात को |
विरह की अग्नि !
बड़ी दु:खद है !
समझो ! तुम इस बात को ||
आँख में पानी !
रूह अनजानी !
और दिल में हुई है वेदना !
आशा-दामन !
अब छूट रहा है !!!
दम तोड़ रही संवेदना !!!!!!
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— डॉ० प्रदीप कुमार “दीप”
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