संवेदना
जगत की इस दौड़ में अब
नित खो रहीं संवेदनाएँ,
कल्पना के शिखर चढ़ने को
पाँव तले दबती संवेदनाएँ,
इतनी जल्दी में सभी हैं
छोड़ भागे संवेदनाएँ,
सुख में हों या दुःख में कोई
औपचारिकता से नित्य ही
हैं होड़ लेती संवेदनाएँ ।
कृत्रिम है औपचारिकताएं
वास्तविक संवेदनाएँ
किन्तु सदा ही होड़ में अब
हार जातीं संवेदनाएँ ।
रिश्तों के चौखट में भी अब
पहले सी कुछ बात न अब
ड्योढ़ी दिखावों से पटी रहती
आ पातीं न भीतर संवेदनाएं ।
हो गए हैं कुशल हम सब
सुनियोजित करने में सब कुछ
कब कहाँ हँसना है कितना
शोक की भी व्यञ्जनाएँ ।