*संवेदना*
संवेदना
नहीं रही संवेदनाएं,
बस रह गई है अपेक्षाएं।
अहंकार युक्त दूषित मन,
स्वार्थ से भरे हुए मन,
आधुनिकता के इस युग में,
इस कलयुग में
क्या ढूंढ रहे हो तुम प्रेम?
जहां हो रहे संबंध,
निरंतर ही निराधार।
मोबाइल फोन से हो रहे,
शब्दों के व्यापार।
बस रह गए हैं,
कलुषित विचार।
शोषित होती नारी,
हो रही भ्रूण हत्याएं।
शराब जैसी विषमताओं से,
होते कितने घर बर्बाद।
पारिवारिक कलह से
अंतर्मन पर होते
लाखों प्रहार।
राम का चोला पहने,
रावण कर रहे ,
लड़कियों का देह व्यापार।
सरकारी योजनाओं के
आने पर भी
नहीं मिलते पूर्णतया लाभ।
दान पुण्य की बात बिन,
लालच से बढ़ाता मानुष,
अपना व्यापार।
क्या तुम आशा करते राम की?
आशा करते सुंदर युग की ?
पर यह सत्य जान लो
क्या तुम भूल गए?
यह कलयुग है।
बस रह गई हैं
आशाएं।
नहीं रही वैसी संवेदनाएं।
नहीं रही वैसी संवेदनाएं।
डॉ प्रिया।
अयोध्या।