संवेदना
मर गई मन की संवेदना!
कब कैसे क्यों ?
कोई बता सकता है क्या?
नहीं कैसे बतायेगा!
संवेदना बची ही कहाँ है भीतर।
सब ही तो तलवार लिए खड़े हैं,
करने को वार।
बस मौके की तलाश में,
किसी ने उधार दिये थे पैसे,
आज मागने लगा शायद उसे भी तो
जरूरत आन पड़ी होगी,
जागी थी संवेदना जरूरतमंद पर।
वही संवेदना खंजर बनाकर,
सीने के पार करदी संवेदनशील के।
लुटेरा आया भिखारी बनकर,
भोजन की चाह में,
भरपेट भोजन किया साथ रैकी भी कर ली।
किसी दिन छेद कर गया था थाली में,
लूट ले गया संवेदना को
भिखारी बना गया।
सत्य का पक्ष लेना चाहिए
पर भारी पड़ गया एक दिन सत्यवादी को,
सिर कर दिया धड़ से अलग,
बहुरूपियों ने।
संवेदना कैसे जिंदा रहेगी भला !
संवेदना की प्रशंसा करता ही कौन है
आजकल।
पिशाच घात लगाये बैठा है,
संवेदना पर।
क्या तुम बचा सकोगे संवेदना के अस्तित्व को,
कुछ भी मोल चुकाकर ?
स्वरचित
-गोदाम्बरी नेगी