*संवेदनाओं का अन्तर्घट*
ख़्वाबों और ख़्वाहिशों के अंतहीन प्यास में
आधुनिकता के रंगीन फ़रेबी मायाजाल में
धीरे धीरे छूटा जा रहा इंसानियत का साथ
मानव के हाथों से मानवीय संबंधों का हाथ !
क्या संवेदनाओं का अन्तर्घट रीत गया ?
क्यों मन से मन का सद्भाव , प्रीत गया ?
महत्वकांक्षा की दौड़ में भाग रहे सब बेसबब
जीतने की होड़ में अपनी ही धुन में बेअदब
बेवजह पनप रहे लड़ाई झगड़े और फ़रियाद
नहीं अब वह भावनाओं की नमी और खाद !
क्या संवेदनाओं का अंतर्घट रीत गया ?
क्यों मन से मन का सद्भाव ,प्रीत गया ?
शुष्कता से भरा आजकल का लोकव्यवहार
विस्मृत दिखते हैं सारे संस्कृति और संस्कार
नख़रों, दिखावे,नकल का संसार है लुभावना
लुप्त हो रही कहीं सहज अंतर्मन की भावना !
क्या संवेदनाओं का अन्तर्घट रीत गया ?
क्यों मन से मन का सद्भाव , प्रीत गया ?
विलासिता पूर्ण भौतिकता संपन्न है जीवन
फिर भी उदास अवसादग्रस्त बहुतेरे का मन
संवादहीनता पसरी है शहर, गली और गाँव
मोबाइल की मृगमारिचिका खेल रही हर दांव !
क्या संवेदनाओं का अन्तर्घट रीत गया ?
क्यों मन से मन का सद्भाव , प्रीत गया ?
सुविधाएँ अनेक पर समस्याओं का है अंबार
नौकरी की व्यस्त दिनचर्या में उलझा घरबार
एक दूसरे के लिए समय का बहुत है अभाव
पर सोशल मीडिया पर सभी से मधुर बर्ताव !
क्या संवेदनाओं का अन्तर्घट रीत गया ?
क्यों मन से मन का सद्भाव , प्रीत गया ?
घड़ी की सुइयों पर चलता आधुनिक जीवन
मशीनी तकनीक के समान हुआ यंत्रवत मन
आत्मुग्धता में डूबे मनुष्य का‘अहम’है विशाल
अपने मतलब की सारी बातें लेता वह संभाल !
क्या संवेदनाओं का अन्तर्घट रीत गया ?
क्यों मन से मन का सद्भाव , प्रीत गया ?