संवेदनाएँ
संवेदना रस है चेतनता का
यही तो फर्क है जड़ व चेतन का ।
जैसे पेड़-पौधों में जल,
रस बनकर उन्हे संवारता है।
ऐसे ही जीव की संवेदना का स्तर
द्योतक है उसकी श्रेष्ठता का ।
पर भौतिक उन्नति की कुदालों से
बहुत आहत हुई है हमारी संवेदना ;
असह्य चोटों से मूर्च्छित हुई संवेदना
नहीं महसूस कर पाती कोई स्पर्श,
वायु, शब्द, रूप, रस गंध का ।
सब कुछ जान व सीख कर भी
जगत रह जाता है अनजाना ही
कैसे जानेंगें हम जगत कर्त्ता को
जब उसके हस्ताक्षर रूपी जगत
से ही तादात्म्य न कर पाए ?
इसी जगत भट्ठी में पकी संवेदना ही
पाथेय बनती है प्रभु द्वार का।