‘ संरक्षक बनाम भक्षक ‘
हाँ ! मैने भी देखा है एक वट वृक्ष विशाल
अचंभित थी देख उसकी विशालता कमाल ,
अपने आप को कुछ ज़्यादा सघन कर रहा था
धीरे – धीरे वो हमको अंधेरों से ढ़क रहा था ,
हमारा पनपना वो रोज देख रहा था
ज्यादा पनपने से हमें रोक रहा था ,
देखने वाले सोचते वो हमारा संरक्षक है
कैसे कहें की यही तो हमारा भक्षक है ,
लोग रोज आते उसकी छांव में बैठते
उसकी शीतल छांव में खुद को ताज़ा करते ,
कहते भला हो उसका जिसने ये बरगद लगाया
लेकिन किसी ने निगाह नही हम पर फिराया ,
हम जाने कब से उसी आकार में पड़े हैं
दो – चार पत्तियों के अलावा और नही बढ़े हैं ,
लोग दोष हमें देते हैं की हममें क्षमता नही
कोई भी ले जाकर हमें कहीं और रोपता नही ,
अब हमने बरगद की नियत समझ ली है
इसके ही नीचे पनपने की ज़िद ली है ,
पत्तों से छन कर किरणें जो पार हो रही हैं
उसी से हमारे जीवन की सांसे आ रही हैं ,
धीरे ही सही हम भी विशाल वृक्ष बनेंगें
फल कुछ ज्यादा पत्ते थोड़ा कम रखेंगें ,
हमारी तरह औरों को पनपने में ना देर हो
सूरज की किरणों के साथ रोज़ नई सबेर हो ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 03/12/2020 )