संयोग
संयोग
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जड़ का
जहरीला हो जाना
महज
एक संयोग नहीं है
आवृत्ति है
नफरतों को
उसमें ठूंसे जाने की
तब तक
जब तक
जड़ की एक-एक नसें
छोटी से छोटी शिरा
पूर्णतः विषाक्त होकर
गल ना जाये
संवेदना के सभी परमाणु
नसों से
बाहर ना हो जायें
अगर थोड़ी भी संवेदना
बच गयी जड़ों में
तो विष का अमृत हो जाना
संभव है
बहा दो
नस-नस में नफ़रत
भर दो जड़ के अंग-अंग में विष
इंसान के रूप में
विषधर हो तुम
जड़ में विष का बजबजा जाना
विशाल वृक्ष के
अंत का द्योतक है
सूचक है वृक्ष के
धराशायी होने का
जिसपर अनगिनत
ज्ञात और अज्ञात
जीव बसते हैं
जिनकी नसों में
अमृत का प्रवाह है
फिर भी
विष के सहारे
टिका है उसका संसार
घोंसले,बांबी और खोह
जिनमें पलते हैं कुछ अबोध
उन्हें ज्ञात भी नहीं
जड़ विष से भर चुका है
बाहर भी आने लगा है ज़हर
जो भरा जा रहा था
बरसों से
दोष जड़ का तो था ही
बिना विरोध के
विष को अंगीकार जो किया
अनवरत उसका पान किया,
कुछ तनों का था
और हाँ कुछ
पतली डालियों का भी।
–अनिल कुमार मिश्र