संभावना
सागर के विशाल तट पर
अनगिनत शिलाखंडों में वह
नृप सदृश शिलाखंड
कवि नित्य निहारता था
समूचे दृश्य का अवलोकन करता
पर मात्र वह खण्ड ज्यों उसे
प्रतिदिन पुकारता था
कवि के चित्त का प्रश्न
बाहर आने को आतुर
उत्तर पाकर
शांत होने को व्याकुल
अंततः कवि ने पूछा
क्या तनिक भी चाह नहीं तुममें
सदृश कोई कलाकृति हो मुझमें
या
शिल्पी की प्रतीक्षा कर रहा तू
सादर नमन कर शिलाखंड बोला
क्यों व्यर्थ समीक्षा कर रहा तू
नहीं चाह मुझमें एकरूपता जड़ता की
अनगढ़ हूँ जब तक
संसार की सभी मूर्तियों की
सम्भावनायें समेटे हूँ तब तक
अडिग शिलाओं का यह प्रान्त
अनगढ़ता से प्रसन्न सम्भ्रांत
क्या दिख सकती है कभी
तुझमे कभी कोई नारी
हमे देख
हममें यदि कृष्ण दृश्य हैं
तो राधा की भी संभावना है सारी
अजय मिश्र