संभल जाओ, करता हूँ आगाह ज़रा
हे ! जग में रहने वाले,
संभल जाओ, करता हूँ आगाह ज़रा !
प्रकृति के हो तुम आसरे,
यूँ धरा की सुंदरता बिगाड़ो ना !!
रमणीयता घने वन- उपवन की,
निज स्वार्थ मे मात्र उजाड़ो ना !
घातक न बन जाये करनी तुम्हारी,
संभल जाओ, करता हूँ आगाह ज़रा !!
सागर नदियाँ झीलें ये प्रकृति के श्रोत,
अमृत रस का है खान यहाँ !
दूषित करके प्रकृति के अवयवों को,
क्यों मिटा रहा जीवन का आधार अपना!!
नष्ट करके पर्वत और पठार,
लगा बारूद विध्वंस को बुला रहा !
आसन धरती का डोलेगा जब,
नहीं बचेगा मानव के निशान यहाँ !!
पशु -पंछी सकल जीवधारी भी रहते,
पर्यावरण से जुड़ कर सब फलते-फूलते !
यूँ प्रकृति को विलासिता और लालच मे तबाह न कर,
संभल जाओ, करता हूँ आगाह ज़रा !!
हर जाति वर्ग और वर्ण से बता दो,
प्रकृति से अत्यधिक करता नहीं कोई प्यार तुमको!
दोहन ना करो इस कदर भविष्य का ख्याल रखो,
संभल जाओ, करता हूँ आगाह ज़रा !!
🌸बुद्ध प्रकाश,
मौदहा हमीरपुर।