#संबंधों_की_उधड़ी_परतें, #उरतल_से_धिक्कार_रहीं !!
#संबंधों_की_उधड़ी_परतें, #उरतल_से_धिक्कार_रहीं !!
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कोस रहा है बूढ़ा बरगद, मिट्टी हमें पुकार रही।
संबंधों की उधड़ी परतें, उरतल से धिक्कार रहीं।
पनघट की प्रेमिल खूशबू भी,
गन्ध रहित अभिशप्त लगे।
हरा- भरा वह आँगन अपना,
आज अभी संशप्त लगे।
आ जाओ निष्ठुर- निर्मोही,
भोर हमें पुचकार रही।
संबंधों की उधड़ी परतें, उरतल से धिक्कार रहीं।।
गलियों में मरघट सा पहरा,
जहाँ कभी थी चहल-पहल।
नयनों में लाचारी फैली,
ताक रहे हैं हमें महल।
होकर अनदेखी से आहत,
पगडण्डी सिसकार रही।
संबंधों की उधड़ी परतें, उरतल से धिक्कार रहीं।।
कान्तिहीन वह पोखर अपना,
जिसमें नित्य नहाते थे।
कभी बैठते तट पे उसके,
उससे ही बतियाते थे।
अपनों से बिलगाव दुखद है,
गलियाँ भी चीत्कार रहीं।
संबंधों की उधड़ी परतें, उरतल से धिक्कार रहीं।।
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण, बिहार