*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक रिपोर्ट*
संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक समीक्षा
18 अप्रैल 2023 मंगलवार प्रातः 10:00 से 11:00 तक
आज बालकांड दोहा संख्या 329 से आरंभ होकर बालकांड के समस्त 361 दोहे हुए। तदुपरांत अयोध्याकांड के संस्कृत श्लोकों का पाठ हुआ तथा दोहा संख्या एक वर्ग तक पढ़ा गया ।
राम बारात का अयोध्या आगमन, वृद्धावस्था आती देख दशरथ का राम के राज्याभिषेक का विचार
रवि प्रकाश के साथ पाठ में श्रीमती मंजुल रानी की मुख्य सहभागिता रही।
कथा क्रम में आज भगवान राम और सीता जी के विवाह के उपरांत बरात अयोध्या लौट कर आई। अयोध्या में वर-वधु का स्वागत हुआ ।अंत में अपने सिर के बाल सफेद होते देखकर राजपाट पुत्र राम को देने की पावन इच्छा राजा दशरथ के मन में जागी।
भोजन में पान का चलन भगवान राम के समय में खूब होता था । तुलसी ने अनेक स्थानों पर पान खाने की बात लिखी है:-
देइ पान पूजे जनक, दशरथु सहित समाज (दोहा 329)
ॲंचइ पान सब काहूॅं पाए (दोहा 354)
इनमें एक स्थान पर लिखा हुआ है कि जनक जी ने सब को पान खिलाया तथा दूसरे स्थान पर लिखा हुआ है कि सबने पान खाया।
अतिथि-सत्कार भारत की प्राचीन परंपरा है। अतिथियों का इस प्रकार से सम्मान करना कि उन्हें रहते हुए आनंद का अनुभव हो, यही सुंदर आतिथ्य कहलाता है। लेकिन इसके साथ ही नीति की बात यह भी है कि अतिथि को भी यह ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं उसके अधिक ठहरने के कारण मेजबान को असुविधा तो नहीं हो रही है। मजा इसी में है कि अतिथि कई बार कहे कि अब मैं जाना चाहता हूं और मेजबान उसे जबरदस्ती कुछ दिन के लिए और रोक ले । राजा जनक के यहां जब दशरथ जी रुके हुए हैं, तब अतिथि सत्कार में दोनों तरफ से यही लोक व्यवहार देखने को मिलता है। दशरथ जी बार-बार विदा मांगते हैं और जनक जी उन्हें अनुराग पूर्वक रोक लेते हैं। तुलसी लिखते हैं :-
दिन उठि विदा अवधपति मॉंगा। राखहिं जनक सहित अनुरागा।। (दोहा 331)
काव्य में अर्थ को अनेक शब्दों में अभिव्यक्त करने से भी लालित्य आता है। हाथी में भी चार मात्राएं हैं तथा उसके पर्यायवाची सिंधुर और कुंजर में भी चार-चार मात्राएं हैं। लेकिन काव्य का सौंदर्य सिंधुर और कुंजर शब्द के प्रयोग से चौगुना हो गया है। बात तो हाथी लिखने से भी सध जाती, लेकिन अनेक पर्यायवाची प्रयोग में लाने से काव्य का सौंदर्य निखरता है। एक चौपाई इस दृष्टि से ध्यान देने योग्य है :-
मत्त सहस दस सिंधुर साजे। जिन्हहिं देखि दिसिकुंजर लाजे।। (दोहा वर्ग संख्या 332)
उपरोक्त संदर्भ दहेज में दस हजार हाथी राजा जनक द्वारा भेंट किए जाने से संबंधित है।
स्त्री के रूप में जन्म लेने की जो पीड़ा शिव-पार्वती विवाह के संदर्भ में पार्वती जी की माता जी मैना के मन में उपजी थी, वही पीड़ा राजा जनक की रानियों को अपनी पुत्रियों को विदा करते समय हो रही है । वह कहती हैं:-
कहहिं बिरंचि रचीं कत नारी (दोहा वर्ग संख्या 333)
अर्थात विधाता ने नारी की रचना ही न जाने क्यों की है ? यहां आशय नारी स्वतंत्रता का नहीं है बल्कि विवाह के उपरांत कन्या दूसरे घर चली जाती है और उससे बिछोह हो जाता है, इस दुख को ध्यान में रखते हुए ही इस बार सीता जी की माताएं बारंबार छटपटा रही हैं।
पत्नी के लिए यह आवश्यक है कि वह सास, ससुर और गुरु की सेवा करे तथा पति का रुख देखकर व्यवहार करें देखा जाए तो घर गृहस्थी परस्पर सामंजस्य से ही चलती है। इसीलिए तुलसी ने लिखा है :-
सासु ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू।।
अनेक बार दामादों के मन में अभिमान आ जाता है और वह अपने आप को लड़की वालों से श्रेष्ठ मानने लगते हैं। भगवान राम के मन में दूर तक भी यह अभिमान उपस्थित नहीं हो पाया। जब अयोध्या के लिए विदा होने का समय आया, तब वह अत्यंत विनय शीलता के साथ अपनी सास से यही कहते हैं कि हमें बालक जानकर हमारे प्रति नित्य नेह बनाए रखिए। तुलसी के शब्दों में:-
बालक जानि करब नित नेहू (दोहा वर्ग संख्या 335)
विदा के समय माताओं का मन भर आता है। बार बार मिलकर भी बिछोह की पीड़ा उन्हें सताती है । तुलसी लिखते हैं:-
पहुंचावहि फिरि मिलहिं बहोरी
अर्थात पहले विदा करती हैं और फिर मिलने लगती हैं । ऐसा क्रम रुकता नहीं है। जहां तक विदा के समय मन की पीड़ा बिछोह के कारण तीव्र होने लगती है, तो यह क्रम केवल मनुष्यों में ही नहीं होता बल्कि सीता जी ने जो शुक अर्थात तोता तथा सारिका अर्थात मैना पाले हुए थे, वह भी दुखी हो जाते हैं। तुलसी लिखते हैं :-
सुक सारिका जानकी ज्याए। व्याकुल कहहिं-कहॉं वैदेही (दोहा 337)
जनक जैसे विदेह कहलाने वाले परम वैरागी व्यक्ति भी पुत्री के विदा के समय व्यथित हो जाते हैं। वास्तव में घर, परिवार, प्रेम तथा राग किसको व्याप्त नहीं होता ? मिलने से सुख तथा बिछड़ने से दुख सभी को होता है । जनक भी इसके अपवाद नहीं हैं। तुलसी लिखते हैं:-
सीय विलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम विरागी।। (दोहा 337)
अर्थात केवल कहने भर को ही उस समय जनक वैरागी रह गए थे अर्थात पुत्री के प्रेम के अनुराग में उनकी भी धीरता जाती रही थी।
जब बारात अयोध्या लौट कर आई तो वहां उसका हार्दिक स्वागत हुआ। स्वागत के विविध प्रकार थे । उसमें से एक तुलसीदास जी के शब्दों में निम्न प्रकार था :-
गलीं सकल अरगजा सिंचाई (दोहा 343)
अरगजा से गलियों की छिड़काव की गई थी। अरगजा का अभिप्राय शब्दकोश के अनुसार कपूर, चंदन, केसर आदि सुगंधित द्रव्य है। तात्पर्य है कि केवल पानी से छिड़काव नहीं हुआ था बल्कि सुगंधित जल से सड़कों का छिड़काव राम जी की बारात के वापस लौटने पर किया गया था।
तुलसीदास जी ने क्योंकि राम विवाह का विस्तृत वर्णन किया है, इसलिए उसमें कई बातें अनायास आती चली गईं। एक स्थान पर तुलसीदास लिखते हैं:-
सिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी।। (दोहा वर्ग संख्या 347)
यहां ओहार का अर्थ शब्दकोश के अनुसार पालकी पर डाले जाने वाले पर्दे से है । सुभग का अर्थ सौभाग्यशाली से है । अतः चौपाई की इस पंक्ति का तात्पर्य है कि सौभाग्यशाली पालकी के पर्दों को हटाकर दुल्हन को देखकर सब स्त्रियां सुखी हो रही थीं।
चौपाई के मात्र एक चरण में तुलसी में यह भी लिख दिया कि:- सुंदर वधुन्ह सासु लै सोईं
विवाह संस्कार के समय वधु के हाथों में जो कंगना बॅंधता हैं और जिनमें डोरे के साथ कुछ नगीने आदि भी बंधे हुए होते हैं, वह भी शुभ मुहूर्त देखकर बरात आने के कुछ दिन बाद खोल दिए गए। इस परंपरा को तुलसी ने निम्न शब्दों में अंकित किया है:-
सुदिन शोधि कल कंकन छोरे (दोहा 359)
विवाह के उपरांत घर, परिवार, समाज और राष्ट्र में सब जगह मंगल हो, यह भी एक बड़ी उपलब्धि होती है । राम विवाह के बाद अयोध्या में सब जगह आनंद ही आनंद था। तुलसी ने अपनी लेखनी से इसे इस प्रकार अंकित किया:-
आए ब्याहि रामु घर जब तें। बसइ अनंद अवध सब तब तें (दोहा वर्ग संख्या 360)
अयोध्या कांड का आरंभ तुलसीदास जी ने संस्कृत के तीन श्लोकों से किया है। यह श्लोक तुलसीदास जी के संस्कृत भाषा पर गहरी पकड़ को दर्शाते हैं। पहला श्लोक भगवान शंकर की वंदना के लिए है तथा दूसरे और तीसरे श्लोक में भगवान राम की वंदना की गई है। भूमिका रूपी जिस दोहे से तुलसीदास जी अयोध्या कांड का आरंभ कर रहे हैं उसका अभिप्राय भी यही है कि अब भगवान राम की वह निर्मल यशगाथा आरंभ हो रही है जो धर्म ,अर्थ ,काम और मोक्ष स्वरूप चारों प्रकार के फलों को प्रदान करने वाली है। दोहा इस प्रकार है:-
श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मनु मुकुर सुधारि। बरनउॅं रघुवर विमल जसु जो दायक फल चारि।।
उपरोक्त दोहे की एक विशेषता यह है कि भगवान राम की यशकथा का वर्णन करने से पहले तुलसीदास जी गुरु के चरण-कमलों की धूल से अपने मन रूपी दर्पण को साफ करने की इच्छा व्यक्त करना नहीं भूलते। अर्थात जो कुछ भी तुलसी लिख रहे हैं, वह गुरु की कृपा का ही प्रसाद है । ऐसी निरभिमानता कवि के अंतर्मन में विद्यमान है। यह एक बड़ा भारी सद्गुण माना जाता है। व्यक्ति की निरभिमानता ही उसकी महानता का द्योतक होती है। सब कुछ अपनी लेखनी से लिख कर भी तुलसी संपूर्ण श्रेय गुरु के चरण कमलों की रज को दे रहे हैं, यह विनम्रता की एक प्रकार से पराकाष्ठा है ।
रामकथा का अब आरंभ हो रहा है, जिसमें महाराज दशरथ अपने सिर के कानों के आसपास के सफेद बालों को देखते हैं और सहसा उन्हें वैराग्य-सा होने लगता है। वह सोचते हैं कि यह जो सफेद बाल हैं , वे बुढ़ापे का उपदेश दे रहे हैं और कह रहे हैं कि राम को राज्य पद देकर जीवन को धन्य कर लो। वृद्धावस्था में पद के मोह को त्यागने में ही जीवन का सार निहित होता है, ऐसा कहकर रामकथा का आरंभ निष्काम भाव से जोड़कर तुलसी ने रामकथा को समाज और राष्ट्र जीवन में सर्वाधिक प्रासंगिक बना दिया है। जब हम किसी भी काल में दृष्टिपात करते हैं, तब यही नजर आता है कि सत्ता का लोभ शरीर के बूढ़ा होने के साथ ही साथ बढ़ता चला जाता है तथा कोई भी व्यक्ति पद नहीं छोड़ना चाहता है। बल्कि जैसे-जैसे मृत्यु निकट आती है, व्यक्ति पद को और भी लोभ के साथ पकड़ कर बैठ जाता है। रामकथा का वास्तविक आरंभ वृद्धावस्था में पद छोड़ने की वृत्ति के साथ आरंभ हो रहा है, इससे बढ़कर समाज और राष्ट्र के लिए शुभ दायक संकेत और क्या हो सकता है ? रामकथा सचमुच मंदाकिनी है, जिसमें स्नान करके व्यक्ति वास्तव में पवित्र हो जाता है। तुलसी की चौपाई इस प्रकार है:-
श्रवण समीप भए कित केसा। मनहुॅं जरठपन अस उपदेसा।। नृप युवराजु राम कहूं देहू। जीवन जनम लाहू किन लेहू।। (दोहा संख्या 1, अयोध्या कांड)
अर्थात श्रवण अर्थात कानों के पास सफेद केश अर्थात बाल देखे तो लगा कि बुढ़ापा उपदेश दे रहा है कि राम को राजा बना दो और जीवन और जन्म का लाभ प्राप्त कर लो।
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लेखक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
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