*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ : दैनिक समीक्षा*
संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ : दैनिक समीक्षा
दिनांक 12 मई 2023 शुक्रवार
प्रातः 10:00 से 11:00 तक
आज उत्तरकांड दोहा संख्या 54 से 91 तक का पाठ हुआ।
आज के पाठ में श्रीमती शशि गुप्ता, श्रीमती साधना गुप्ता, श्री योगेश गुप्ता, श्रीमती मंजुल रानी, तथा श्री विवेक गुप्ता की विशेष सहभागिता रही।
कथा-सार
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भक्त शिरोमणि कागभुशुंडि जी का वर्णन
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कथा-क्रम
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उत्तर दिशि सुंदर गिरि नीला। तहॅं रह काकभुशुंडि सुशीला।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 61)
भक्त शिरोमणि कागभुशुंडि जी रामचरितमानस में रामकथा के अनुपम पात्र हैं। मनुष्य देहधारी ऋषि, मुनियों और भक्तों की कोई कमी नहीं है। लेकिन काकभुशुंडि जी कौए नामक पक्षी के रूप में ईश्वर की भक्ति करने वाले अनोखे प्राणी हैं।
कौए का वर्णन रामचरितमानस में एक बार तो उस समय आता है जब इंद्र के पुत्र जयंत ने कौवे का वेश धरकर अपनी चोंच से सीता जी पर प्रहार किया था । यह कौवे की नकारात्मक भूमिका थी। कौवे नामक पक्षी की सकारात्मकता से ओतप्रोत अत्यंत भावप्रवण भूमिका हमें काकभुशुंडि जी के रूप में देखने को मिलती है।
भगवान शंकर ने पार्वती जी को बताया कि जो कथा मैं भगवान राम की तुम्हें सुना रहा हूं, वह वही कथा है जो कागभुसुंडि जी ने गरुड़ जी को सुनाई थी। तब पार्वती जी ने प्रश्न किया कि यह कागभुसुंडि जी कौन हैं जो कौवा होते हुए भी इतना दुर्लभ भक्ति का पद प्राप्त कर चुके हैं ?
शंकर जी के द्वारा कागभुसुंडि जी के बारे में यह बताया गया कि सुमेरु पर्वत के उत्तर में एक बहुत सुंदर नीले रंग का पर्वत है, जहां बरगद पीपल पाखड़ और आम के विशाल वृक्ष हैं। पर्वत के ऊपर सुंदर तालाब है। काकभुशुंडि जी वृक्ष के नीचे भगवान का भजन निरंतर करते रहते हैं । बरगद के पेड़ के नीचे वह रामकथा समस्त हंसों को सुनाते हैं । यह हंस तालाब में रहते हैं । भगवान शंकर ने भी हंस का शरीर धारण करके कागभुसुंडि जी से कुछ समय तक श्री रामकथा सुनी थी । कागभुसुंडि जी एक प्रकार से अजर अमर हैं। जब संसार नष्ट हो जाता है , तब भी वह नष्ट नहीं होते । नीले पर्वत पर जहां कागभुसुंडि जी रहते हैं, वहां संसार के माया-मोह प्रवेश नहीं कर पाते।
भगवान शंकर ने पार्वती जी को बताया कि एक बार जब गरुड़ जी मेघनाद द्वारा भगवान को बांधने वाले पाश को काटने के लिए गए थे, तब उनको यह भ्रम हो गया कि रामचंद्र जी ईश्वर के अवतार नहीं है, अपितु एक साधारण मनुष्य हैं। उसके बाद वह अपने भ्रम-मोह को मिटाने के लिए नारद जी के पास गए। नारद जी ने उन्हें ब्रह्मा जी के पास भेज दिया। ब्रह्मा जी ने शंकर जी के पास भेज दिया और शंकर जी ने उन्हें राम कथा सुनने के लिए नील पर्वत पर कागभुसुंडि जी के पास राम कथा सुनने के लिए भेज दिया।
गरुड़ जी ने नील पर्वत पर पहुंचकर वट वृक्ष के नीचे काग भुशुंडि जी के श्रीमुख से भगवान राम की कथा सुनी। इस कथा को सुनकर उनका सारा मोह दूर हो गया। वह जान गए कि राम वास्तव में ईश्वर के अवतार हैं।
गरुड़ जी जब अत्यंत विनयशील भावना से तथा मोह की निवृत्ति के उपरांत पवित्र श्रोता के रूप में कागभुसुंडि जी के आगे बैठे रहे, तब भक्त शिरोमणि परम विद्वान काकभुशुंडि जी ने उनको बताया कि मोह हो जाना कोई अचरज की बात नहीं है। कभी न कभी सबको ही मोह हो जाता है । संसार में मोह माया से विरक्त रहने के सदुपदेश तब काग भुसुंडि जी ने गरुड़ जी को प्रदान किए। कागभुसुंडि जी कहते हैं:-
सुत वित लोक ईषना तीनी। केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 70)
अर्थात पुत्र, धन और संसार में सम्मान की आसक्ति ने भला किसकी मति अर्थात बुद्धि को मलिन नहीं किया है ? इन तीनों को ही रामचरितमानस से हटकर अन्य स्थानों पर पुत्रेषणा, वित्तेषणा और लोकेषणा के दुर्गुण के रूप में बताया गया है। इन से ऊपर उठकर ही व्यक्ति सच्ची भक्ति के क्षेत्र में प्रवेश कर पाता है।
कागभुसुंडि जी ने गरुड़ जी को अपने मोहग्रस्त होने की भी कथा सुनाई। कहने लगे, मैं भगवान राम के बालरूप पर मोहित था। जब तक भगवान पॉंच वर्ष की आयु के नहीं हो जाते थे, मैं उनके साथ रहता था । कौवे का छोटा-सा शरीर मेरा था और मैं उनके साथ-साथ उड़ता रहता था :-
लघु बायस बपु धरि हरि संगा। देखउ बालचरित बहु रंगा।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 74)
बपु का अर्थ शरीर है। हनुमान प्रसाद पोद्दार जी की टीका के अनुसार “छोटे से कौए का शरीर धरकर भगवान के साथ फिरकर मैं उनके भॉंति-भॉंति के बाल-चरित्रों को देखा करता हूं।”
एक बार बाल चरित्रों को देखकर कागभुसुंडि जी को यह लगने लगा कि इस प्रकार बच्चों जैसी लीला जगत के स्वामी परमब्रह्म की नहीं हो सकती। बस, इतना सोचते ही भगवान राम ने उनके मन की बात जान ली और हंसने लगे। काग भुसुंडि जी भगवान के मुख में चले गए। जाकर देखते हैं:-
कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा। अनगिन उडगम रवि रजनीसा।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 79)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के शब्दों में “करोड़ों ब्रह्मा जी और शिव जी, अनगिनत तारागण, सूर्य और चंद्रमा” वहां थे।
तात्पर्य यह है कि ब्रह्मांड अनेक थे। हर ब्रह्मांड में सृष्टि भिन्न-भिन्न थी । लेकिन भगवान रामचंद्र एक ही समान थे। तब जाकर काकभुशुंडि जी को भगवान की राम-अवतार रूप में लीलाओं का रहस्य ज्ञात हुआ। भगवान ने उनसे कहा :-
मम माया संभव संसारा। जीव चराचर विविध प्रकारा।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 85)
अर्थात अनेक प्रकार के जो जीव हैं, वह संसार मेरी माया से ही रचा हुआ है।
भगवान के ब्रह्मरूप का दर्शन साक्षात करने के उपरांत काग भुसुंडि जी को भगवान राम के सगुण अवतार पर पूरा विश्वास हो गया । उन्होंने गरुड़ से कहा :-
जाने बिनु न होई प्रतीति। बिनु प्रतीति होई नहिं प्रीति।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 88)
अर्थात जब तक अनुभव से साक्षात परमात्मा के विश्वरूप को देख नहीं लिया जाता, तब तक विश्वास नहीं हो पाता। और बिना विश्वास के प्रभु से प्रेम भी संभव नहीं है। काग भुसुंडि जी का भक्तिमार्ग में इसलिए बहुत ऊंचा स्थान है क्योंकि वह मात्र शब्दों की बाजीगरी करने वाले विद्वान नहीं हैं। वह परमात्मा के सगुण साकार रूप की विराटता का साक्षात दर्शन करने वाले भक्त हैं।
प्रभु से यही प्रार्थना है कि वह हमें अपने विराट रूप के दर्शन की पात्रता प्रदान करें। इसी में मनुष्य जीवन की सार्थकता निहित है।
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समीक्षक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल)
पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
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