*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ : दैनिक समीक्षा*
संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ : दैनिक समीक्षा
दिनांक 11 मई 2023 बृहस्पतिवार
प्रातः 10:00 से 11:00 तक
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आज उत्तरकांड दोहा संख्या 13 से दोहा संख्या 53 तक का पाठ हुआ ।
पाठ में श्रीमती शशि गुप्ता, श्रीमती साधना गुप्ता, श्रीमती मंजुल रानी तथा श्री विवेक गुप्ता ने मुख्य रूप से सहभागिता की ।
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कथा-सार : रामराज्य का सुंदर वर्णन
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कथा-क्रम :
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नहिं राग न लोभ न मान मदा। तिन्ह के सम वैभव वा विपदा।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 13)
अर्थात जिनके जीवन में राग, लोभ, मान और मद का दोष नहीं होता; उन्हें वैभव और विपदा एक समान महसूस होती है। रामचरितमानस में स्थान-स्थान पर गोस्वामी तुलसीदास जी मनुष्य के चरित्र को परिष्कृत करने के लिए सद्विचारों की सरिता प्रवाहित करते रहते हैं। संपूर्ण रामकथा का उद्देश्य भी मूलतः यही है।
जब समस्त वानरों और विभीषण को अयोध्या में रहते हुए छह महीने बीत गए, तब भगवान राम ने अत्यंत आदर और स्नेह के साथ उनको अयोध्या से विदा किया। किसी का मन भगवान राम को छोड़कर जाने का नहीं कर रहा था। अंगद ने तो रो-रोकर भगवान से कहा :-
मोरे तुम्ह प्रभु गुरु पितु माता। जाऊं कहां तजि पद जलजाता।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 17)
अर्थात मेरे तो आप ही प्रभु, गुरु, पिता और माता हैं। आपके चरण कमलों को छोड़कर मैं कहां जा सकता हूं ? अंगद ने कहा कि जो चाहे मुझसे सेवा करा लीजिए, लेकिन जाने को मत कहिए । प्रभु राम ने अंगद को हृदय से लगा लिया। बहुत समझा-बुझाकर अंगद और बाकी सबको मनाया। विदा होते समय निषादराज सहित सबकी आंखों में आंसू थे। केवल हनुमान जी ही भगवान राम की सेवा के प्रण से नहीं टले।
रामराज्य स्थापित हो गया । रामराज्य एक आदर्श राज्य व्यवस्था है। इसमें सब लोग सुखी हैं। सत्य का आचरण करते हैं। किसी को किसी से कोई बैर नहीं है। एक दूसरे की उन्नति को देखकर सब हर्षित होते हैं। राम के राजपद पर प्रतिष्ठित होते ही तीनों लोकों में सब प्रकार का शोक समाप्त हो गया । चारों तरफ हर्ष छाने लगा । तुलसीदास लिखते हैं:-
राम राज बैठे त्रैलोका। हर्षित भए गए सब शोका।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 19)
एक अच्छी राज्य व्यवस्था में नागरिकों को किसी प्रकार के दुख नहीं होते हैं। तुलसीदास जी ने रामराज्य की बहुत सुंदर स्थिति का चित्रण एक चौपाई में किया है:-
दैहिक दैविक भौतिक तापा। रामराज नहिं काहुहि व्यापा।। सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 20)
दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों से रामराज्य में मुक्ति थी । शरीर-पर्यावरण आदि के कोई दुख नहीं है। सब में प्रेम था। सब अपने अपने कर्तव्यों का पालन करते थे। रामराज्य की एक विशेषता यह भी थी कि उसमें कोई दरिद्र व्यक्ति नहीं था। एक और बड़ी बात यह थी कि रामराज्य में सब गुणवान-पंडित और ज्ञानी लोग निवास करते थे। कोई कपट या छल के साथ व्यवहार नहीं करता था । सब एक दूसरे के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने वाले लोग थे। किसी राज्य-व्यवस्था में दरिद्र न होना एक बड़ी उपलब्धि होती है। ऐसा तभी संभव है, जब सोच-विचार करके शासक अपनी नीतियां तय करता है। सबका सुशिक्षित होना जहां महत्वपूर्ण है, वहीं सबके भीतर छल-कपट से रहित व्यवहार करने का गुण एक अलौकिक शासक के शासन का परिणाम ही कहा जा सकता है :-
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।… सब गुणग्य पंडित सब ज्ञानी। सब कृतज्ञ नहिं कपट सयानी।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 20)
रामराज्य की प्रमुख विशेषता यह थी कि स्त्री और पुरुष परस्पर मर्यादा के साथ व्यवहार करते थे। विवाह-संस्था एकपत्नी-व्रत के आदर्श से बंधी हुई थी। जहां एक ओर पति अपने वैवाहिक जीवन में एक पत्नी के प्रति आदर और प्रेम से संतुष्टि प्राप्त करते थे, वहीं दूसरी ओर पत्नियां भी सब प्रकार से पति से प्रेम और अपनत्व का व्यवहार किया करती थीं। किसी दूसरी नारी की ओर बुरी दृष्टि से देखने का कोई प्रश्न ही नहीं था। एक आदर्श राज्य में एक पति और एक पत्नी परिवार की इकाई को स्थापित करें और उसको संचालित करने में पूरी तरह संतुष्टि के साथ जीवन व्यतीत करें, इससे बेहतर स्थिति कोई दूसरी नहीं हो सकती। समाज में अनेक विकृतियां तभी पैदा होती हैं जब स्त्री और पुरुष अपने वैवाहिक जीवन से बाहर आकर मर्यादा का उल्लंघन करते हैं। ऐसे में परिवार टूट जाते हैं तथा दांपत्य जीवन ही क्या; बच्चों के पालन पोषण तक में बिखराव आ जाता है। रामराज्य इंद्रियों पर नियंत्रण करते हुए नर और नारी के संतुलित रूप से जीवन जीने की कला पर आधारित समाज व्यवस्था है ।
तुलसीदास जी के शब्दों में :-
एकनारि व्रत रत सब धारी। ते मन वच क्रम पतिहितकारी।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 21) हनुमान प्रसाद पोद्दार जी की टीका के अनुसार उपरोक्त चौपाई के अंश का अर्थ इस प्रकार है: “सभी पुरुष मात्र एक पत्नीव्रती हैं। इसी प्रकार स्त्रियां भी मन वचन और कर्म से पति का हित करने वाली हैं।”
रामराज्य में नदियों का जल निर्मल था। समुद्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता था अर्थात समुद्र में कोई सुनामी जैसी विकृति नहीं आती थी।
समय के साथ ही राम और सीता के लव तथा कुश नामक दो पुत्र हुए। बाकी तीनों भाइयों के भी दो-दो पुत्र हुए। (संदर्भ चौपाई संख्या 24)
एक बात रामराज्य में बहुत अच्छी थी कि भगवान राम विद्वानों के साथ बैठकर उनके सदुपदेश सुनते थे। यद्यपि राम सब कुछ जानते थे, लेकिन जब लीलाधारी ने लीला करने के लिए शरीर धारण किया है; तो शरीर के अनुसार व्यवहार करने हेतु ज्ञान की बातें सुनना भी सर्वथा उचित है ।
एक अच्छी बात यह भी रही कि भगवान राम अपने सब भाइयों के साथ बैठकर भोजन करते थे। परिवार में व्यस्तताएं हो सकती हैं, समय का अभाव सबके पास है, लेकिन एक साथ बैठकर भोजन करने की जो परिपाटी रामराज्य में भगवान राम स्थापित करते हैं; वह संयुक्त-परिवार नामक संस्था को अद्वितीय सुदृढ़ता प्रदान करने वाली है ।
तुलसीदास लिखते हैं:-
अनुजन्ह संयुत भोजन करहीं। देखि सकल जननीं सुख भरहीं।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 25)
सरयू नदी जो अयोध्या के उत्तर दिशा में बह रही है, उस पर बहुत सुंदर घाट बने हुए हैं और नदी के तट पर कोई कीचड़ गंदगी आदि देखने को नहीं मिलती है। एक खास बात यह भी है कि रामराज्य में नदी के घाटों पर सब नागरिक बिना किसी भेदभाव के एक साथ स्नान करते हैं। इससे पता चलता है कि कर्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था केवल कार्य-विभाजन तक सीमित थी। इसका अर्थ किसी भी प्रकार से किसी व्यक्ति के छोटे या बड़े होने से नहीं था।
तुलसीदास लिखते हैं:-
राजघाट सब विधि सुंदर बर। मज्जहिं तहॉं वर्ण चारिउ नर।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 28)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी की टीका के अनुसार अर्थ यह हुआ कि “राजघाट सब प्रकार से सुंदर और श्रेष्ठ है, जहां चारों वर्णों के पुरुष स्नान करते हैं।”
एक बार भरत जी ने भगवान राम से पूछा कि संतों के लक्षण क्या होते हैं ? तब भगवान ने उनको बताया कि संत वह होते हैं जो अपने साथ बुरा होने पर भी दूसरों का भला ही करते हैं। दूसरों के दुख को देखकर दुखी होते हैं, सुख को देखकर सुखी होते हैं। उनके हृदय में कोमलता होती है। दीनों पर दया करने वाले होते हैं। सरलता और सब के प्रति मैत्री-भाव उनका गुण होता है। दूसरी ओर दुष्ट सदैव दुख देने वाले होते हैं। वे दूसरों की संपत्ति को देख कर जलने वाले होते हैं। वे कहीं किसी की निंदा होती सुन लें, तो खुशी के मारे फूले नहीं समाते हैं। अकारण सबसे लड़ाई-झगड़ा करते रहते हैं। जो उनका हित करता है, वह उनका भी बुरा ही करते हैं। उनका स्वभाव ही ऐसा है। भगवान राम ने भरत जी को सद्-उपदेश देते हुए कहा कि इस संसार में धर्म की सबसे अच्छी परिभाषा यही है कि दूसरों का हित करो और किसी को भी कोई कष्ट मत पहुंचाओ :-
परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 40)
अर्थात परोपकार से बढ़कर कोई धर्म नहीं होता। दूसरों को कष्ट पहुंचाने से ज्यादा कोई अधर्म नहीं होता।
भगवान राम की एक शासक के रूप में एक बड़ी भारी विशेषता यह थी कि वह अपने राज्य के विद्वानों की सभा बुलाकर उसमें अपनी बात रखते थे और साथ ही यह भी कह देते थे कि अगर कोई मेरी बात गलत हो तो मुझे निर्भय होकर बता देना । यह शक्तिशाली शासकों की सामान्यतः प्रवृत्ति नहीं होती । आमतौर पर तो शक्तिशाली शासक यही चाहते हैं कि वह जो कहें, उसे सब लोग बुद्धि का प्रयोग किए बिना स्वीकार करें। अपने कथन में दोष बताने वाले को वह अपना शत्रु मानते हैं और किसी भी प्रकार से अपनी कही गई बातों में त्रुटि निकालना पसंद नहीं करते। रामराज्य की यही खूबी थी कि राम अपनी बात किसी पर थोपते नहीं थे। सब के विचारों का आदर करते थे ।
रामचरितमानस में रामचंद्र जी राजसभा में कहते हैं:-
जो अनीति कछु भाषौं भाई। तो मोहि बरजहु भय बिसराई।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 42)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी उपरोक्त चौपाई की टीका इस प्रकार करते हैं :”हे भाई ! यदि मैं कुछ अनीति की बात कहूं तो भय भुलाकर बेखटके मुझे रोक देना।”
भगवान राम रामचरितमानस में मनुष्य के रूप में जन्म लेने को व्यक्ति का सौभाग्य मानते हैं। उनका कहना है कि साधना के लिए यह शरीर हमें मिला है। इसे व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए । यह विषय भोगों के लिए नहीं है । विषय भोगों में फंसकर शरीर को नष्ट कर देना बहुत तुच्छ वस्तुओं के लिए मूल्यवान शरीर को खो देना होता है। प्राप्त हुए शरीर का सदुपयोग न करने से व्यक्ति बार-बार जन्म लेता रहता है। रामचंद्र जी बताते हैं कि यह मनुष्य की देह व्यक्ति को भवसागर से पार उतारने के साधन के रूप में सुलभ हुई है। भक्ति मार्ग का आश्रय लेकर अत्यंत सरलता से व्यक्ति जीवन-मुक्त हो सकता है। इसके लिए उसे संतो के संग की आवश्यकता पड़ती है तथा जीवन में भक्ति-मार्ग पर चलकर ईश्वर की प्राप्ति की जा सकती है। भक्ति-मार्ग को भगवान राम ने बहुत सरल बताया और कहा कि इसमें केवल सरल स्वभाव और मन की कुटिलता के अभाव मात्र से ही लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है। बस इतना ध्यान रहे कि जीवन में संतोष भाव बना रहना चाहिए।
रामचरितमानस कहती है :-
बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 42)
भक्ति मार्ग के पथिक के लिए सात गुणों की आवश्यकता भगवान राम बताते हैं:-
अनारंभ अनिकेत अमानी। अनघ अरोष दक्ष विज्ञानी।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 45)
अर्थात अनारंभ अर्थात किसी कार्य का श्रेय लेने का इच्छुक नहीं होना चाहिए, अनिकेत अर्थात जिसका घर न हो अर्थात वह घर के माया-मोह से मुक्त हो, अमानी अर्थात अभिमान से रहित हो, अनघ अर्थात जिसमें कोई पाप न हो, अरोष अर्थात रोष-रहित हो, दक्ष हो और विज्ञानी हो। जो व्यक्ति अपने जीवन में सद्गुणों को धारण करके व्यवहार करता है वह राज्य-व्यवस्था के लिए भी उपयोगी बन जाता है तथा परिवार और समाज को भी उससे लाभ होता है। व्यक्ति के आत्म-कल्याण की दृष्टि से तो सद्गुणों को अपनाने का अनंत लाभ होता है। वह सब प्रकार के बंधनों से मुक्त होने वाले गुणों को आत्मसात करके सब प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है अर्थात प्रभु के परमधाम को प्राप्त कर लेता है।
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समीक्षक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
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