*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ : दैनिक रिपोर्ट*
संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ : दैनिक रिपोर्ट
10 मई 2023 बुधवार प्रातः 10:00 से 11:00 तक
आज लंकाकांड दोहा संख्या 105 से आरंभ होकर दोहा संख्या 121 पर पूर्ण होते हुए उत्तरकांड दोहा संख्या 12 तक का पाठ
पाठ में श्रीमती शशि गुप्ता, श्रीमती साधना गुप्ता, श्रीमती मंजुल रानी तथा श्री विवेक गुप्ता की विशेष सहभागिता रही।
कथा-सार
जो सीता जी युद्ध से पूर्व अग्नि में सुरक्षित रख दी गई थीं, वह अग्नि से बाहर आ गई । प्रतिबिंब अग्नि में समा गया। पुष्पक विमान से भगवान राम अयोध्या लौटे। राम का राज्याभिषेक हुआ।
कथा-क्रम
युद्ध जीतने के बाद रामचंद्र जी ने हनुमान जी को सीता जी के पास लंका-विजय का शुभ समाचार देने के लिए भेजा। यह सीता जी से भेंट का हनुमान जी के लिए दूसरा अवसर था । उनसे अधिक उपयुक्त व्यक्ति कोई हो ही नहीं सकता था । लंका-विजय के केंद्र में हनुमान ही तो थे !
सीता जी ने हनुमान जी को इन शब्दों में आशीर्वाद दिया :-
सुनु सुत सद्गुण सकल तव, हृदय बसहुॅं हनुमंत । (लंकाकांड दोहा संख्या 107)
अर्थात हे पुत्र हनुमान ! सारे सद्गुण तुम्हारे हृदय में बसें।
यहां देखने वाली बात यह है कि आशीर्वाद में सद्गुण की अभिलाषा माता अपने पुत्र के लिए कर रही हैं । जीवन में सद्गुणों से बड़ी कोई संपत्ति नहीं होती है। व्यक्ति को श्रेष्ठता उसके धन अथवा पद के द्वारा नहीं मिलती है। संसार में सम्मान केवल सद्गुणों से ही प्राप्त होता है । सीता माता ने अपने सुत हनुमान को सद्गुणों का ही अमूल्य आशीष दिया।
जब सीता जी को सुसज्जित पालकी में बिठाकर भगवान राम के पास लाया जा रहा था और सब वानर-भालू उनके दर्शन के इच्छुक थे, तब भगवान राम ने सीता जी को पालकी से उतरकर पैदल चलने के लिए कहा ताकि सब वानर भालू उनका दर्शन मातृ-रूप में कर सकें। इस घटना से दो बातें पता चलती हैं । एक तो यह कि स्त्री को मॉं के रूप में देखना ही उचित है। दूसरी यह कि अगर मातृ-रूप में नारी को हम देख रहे हैं तो उसकी पालकी में बॅंधकर रहने की अनिवार्यता नहीं रहती:-
सीतहि सखा पयादें आनहु। देखहुॅं कपि जननी की नाईं। (लंकाकांड चौपाई संख्या 107)
अर्थात हे सखा! सीता को पयादे अर्थात पैदल लाओ ताकि कपिगण उनको जननी की तरह देख सकें।
एक अद्भुत घटना फिर यह हुई कि वन में असली सीता जी को अग्नि के भीतर भगवान राम ने राक्षसों से भीषण युद्ध शुरू होने से पहले जो छिपा दिया था और उनका प्रतिबिंब ही युद्ध-काल में लीला करता रहा; अब उस प्रतिबिंब को पुनः अग्नि को सौंप कर असली सीता जी को अग्नि से वापस लेने का काम भगवान राम ने किया । तुलसीदास लिखते हैं :-
प्रतिबिंब अरु लौकिक कलंक, प्रचंड पावक महुॅं जरे (लंकाकांड छंद संख्या 108) अर्थात सीता जी का प्रतिबिंब और उन पर लगा हुआ अलौकिक कलंक प्रचंड पावक अर्थात अग्नि में जल गए। यह रहस्य की बात थी, जिसे केवल राम और सीता ही जानते थे। लक्ष्मण भी इससे अनभिज्ञ थे। इसलिए सबको तो यही लगा कि सीता जी ने अग्नि में प्रवेश किया और उसमें से बिना जले बाहर निकल आईं। लीला में यही होता है । संसार को लगता है कि कुछ वास्तव में घटित हो रहा है, लेकिन यह तो केवल लीलाधारी ही जानते हैं कि इस पूरी लीला में रहस्य की बात क्या है। राक्षसों से युद्ध में मायावी शक्तियों से लड़ना था। इसलिए जहां एक ओर असली सीता जी अग्नि में सुरक्षित रहीं, वहीं दूसरी ओर जिस लौकिक कलंक की ओर गोस्वामी तुलसीदास जी संकेत करते हैं; वह भी समाज की तुच्छ सोच होते हुए भी एक वास्तविकता है । अग्नि के भीतर से असली सीता जी को बाहर ले आना तथा प्रतिबिंब को जला देना दोनों दृष्टिकोण से सही रहा।
अब लंका से राम, लक्ष्मण और सीता के चलने का समय आ गया। विभीषण ने आग्रह किया कि हे प्रभु राम ! मेरा महल और संपत्ति सब आपकी ही है। कुछ दिन आप लंका में विश्राम करने की कृपा करें। लेकिन भगवान राम ने इसे अस्वीकार कर दिया और कहा कि भरत मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। मुझे तो एक-एक पल भारी है। जिसके उपरांत विभीषण ने पुष्पक विमान में अनेक बहुमूल्य रत्न भर दिए। लेकिन जब भगवान राम को यह पता चला तब उन्होंने कहा कि इन सब को आकाश में ले जाकर बरसा दो। जिसको जो अच्छा लगे, वह ले ले। भगवान राम लंका की संपत्ति का एक तिनका भी अपने साथ लेकर नहीं चले। यहां तक कि जिस पुष्पक विमान से वह अयोध्या आए थे, उस पुष्पक विमान को भी उन्होंने अयोध्या में आकर विमान से उतरते ही कुबेर के पास वापस भेज दिया। यह मूल रूप से कुबेर की ही संपत्ति थी:-
उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहिं, तुम्ह कुबेर पहिं जाहु। (उत्तरकांड दोहा संख्या 4)
अर्थात उतरते ही प्रभु ने कहा कि पुष्पक विमान! तुम कुबेर के पास लौट जाओ।
लंका में तो कुछ क्या ही था ! भगवान राम ने तो अपनी जन्मभूमि अयोध्या को बैकुंठ से भी ऊंचा स्थान दिया है । वह पुष्पक विमान से जब अयोध्या लौट रहे थे, तब सब वानरों को अयोध्या दिखाते हुए वह कहते हैं:-
यद्यपि सब बैकुंठ बखाना।
अवधपुरी सम प्रिय नहीं सोऊ। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 3)
अर्थात बैकुंठ की सब लोग बहुत बड़ाई करते हैं, लेकिन वह भी मुझे अयोध्या के समान प्रिय नहीं है ।
जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरयू पावनि। अति प्रिय मोहि इहां के वासी। मम धामदा पुरी सुखराशी (उत्तरकांड चौपाई संख्या 3)
अर्थात भगवान राम कहते हैं कि मेरी जन्मभूमि अयोध्या अत्यंत सुंदर है। इसके उत्तर दिशा में पावन सरयू बहती है। मुझे यहां के निवासी अत्यंत प्रिय हैं। यह सुख की राशि है और मेरे परमधाम को देने वाली है।
कोई दूसरा होता तो सोने की लंका को जीतकर वहीं पर शासन करने लगता और अयोध्या को भूल कर लंका के सुख-वैभव में रम जाता। लेकिन यह राम का ही आदर्श है, जिन्होंने जन्मभूमि को बैकुंठ से भी बढ़कर सम्मान दिया और जन्मभूमि अयोध्या की नदी और इसके निवासी उनके हृदय में बस गए।
पुष्पक विमान से लौटते समय भगवान राम ने सीता जी को रामसेतु के निर्माण और रामेश्वरम की स्थापना की बात बताते हुए इनके दर्शन भी कराए ।
अयोध्या पहुंचकर सीधे भरत जी से भेंट करने के स्थान पर भगवान राम ने हनुमान जी की बुद्धि और चातुर्य का उपयोग करते हुए उन्हें भरत जी से मिलकर सारे समाचार सुनाने और भरत जी का समाचार लेकर आने के लिए कहा। इसमें जो संकेत निहित हैं, उनको स्पष्ट करने की गोस्वामी तुलसीदास जी ने आवश्यकता नहीं समझी। भला अपने मुख से कौन कवि या लेखक भरत जी की अनासक्ति पर संदेह करके स्वयं को कलंकित करना चाहेगा ? हनुमान जी ने अत्यंत भक्ति और चातुर्य के साथ भरत जी से भेंट करके भगवान राम का संदेश भी उनको दिया तथा भरत जी की मनोदशा को प्रभु राम के अत्यधिक अनुकूल होने की बात भी महसूस कर ली । हनुमान जी ने भरत जी के हृदय में भगवान राम के प्रति अनन्य प्रेम को अनुभव किया और वह भरत जी के चरणों पर गिर पड़े। रामचंद्र जी के पास लौट कर उन्होंने भरत जी की भावुक मन: स्थिति के बारे में बताया और तब एक क्षण भी गॅंवाए बिना राम सीधे भरत जी के पास चल दिए। भरत जी से जब मिले तो तुलसीदास जी इस दृश्य का वर्णन इन शब्दों में करते हैं:-
गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज। परे भूमि नहिं उठत उठाए। बर करि कृपासिंधु उर लाए।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 4)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने पाठकों के ऊपर अत्यंत कृपा करके जो सुंदर टीका लिखी है, उसके अनुसार उपरोक्त चौपाई का अर्थ यह है :”भरत जी ने प्रभु के चरण कमल पकड़ लिए… भरत जी पृथ्वी पर पड़े हुए हैं। उठाए उठते नहीं। तब कृपासिंधु श्री राम जी ने उन्हें जबरदस्ती उठाकर हृदय से लगा लिया।”
रामचंद्र जी के साथ सुग्रीव, नल, नील, जामवंत, अंगद, विभीषण, हनुमान आदि अनेक वीर वानर थे। दूसरों की प्रशंसा करना तो कोई रामचंद्र जी से सीखे। यद्यपि वह साक्षात परमेश्वर के अवतार हैं तथा अपनी लीला से ही संसार में सब कार्य कर रहे हैं, लेकिन देह-रूप में कार्य करते समय वह अपने सहयोगियों को यथोचित आभार प्रदान करना नहीं भूलते। गुरुदेव वशिष्ठ आदि के सम्मुख वह वानरों की प्रशंसा करते हुए कहते हैं :-
ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहॅं बेरे।। मम हित लागि जन्म इन्ह हारे । भरतहु ते मोहि अधिक पियारे।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 7)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी की टीका से इसका अर्थ संक्षेप में यह निकलता है कि हे मुनि श्रेष्ठ ! यह सब मेरे सखा हैं और समर रूपी सागर में यह बेड़े अर्थात जहाज सिद्ध हुए। इन्होंने मेरे हित के लिए अपना जीवन तक दांव पर लगा दिया। भरत से भी अधिक यह मुझे प्यारे हैं।
शब्दों के द्वारा चमत्कार करना काव्य में गोस्वामी तुलसीदास जी को खूब आता है। जब राज्याभिषेक के समय अयोध्या में स्त्रियां थाल सजाकर भगवान राम की आरती कर रही थीं, तब यह दृश्य देखकर तुलसीदास जी लिखते हैं :-
करहिं आरती आरतिहर की (उत्तरकांड चौपाई संख्या 8)
उपरोक्त पंक्तियों में आरती और आरतिहर शब्दों का जो सामंजस्य तुलसीदास जी ने बिठाया है, वह अद्भुत है। आरति का अर्थ दुख होता है तथा आरतिहर का अर्थ दुखों को हरने वाला हुआ। ऐसे में दुखों को हरने वाले अर्थात आरतिहर की आरती करना लिखकर तुलसीदास जी ने शब्दों का चमत्कार अपने काव्य में उपस्थित किया है। जिसकी जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। रामकथा को तुलसीदास जी ने अपनी सशक्त और प्राणवान लेखनी से सब मनुष्यों के लिए सर्वसुलभ, सुबोध, और सरल बना दिया। तुलसीदास जी के प्रदेय को शत शत नमन ।
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लेखक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
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