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9 May 2023 · 5 min read

*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ : दैनिक रिपोर्ट*

संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ : दैनिक रिपोर्ट
9 मई 2023 मंगलवार प्रातः 10:00 से 11:00 तक
आज लंकाकांड दोहा संख्या 78 से दोहा संख्या 104 तक का पाठ हुआ ।
पाठ में श्रीमती शशि गुप्ता, श्रीमती मंजुल रानी तथा श्री विवेक गुप्ता की विशेष सहभागिता रही।
कथा-सार : राम-रावण युद्ध, रावण का वध

कथा-क्रम

रावण रथी विरथ रघुवीरा (लंकाकांड चौपाई संख्या 79)
अर्थात जब राम और रावण का युद्ध आरंभ हुआ तब विभीषण ने देखा कि रावण रथ पर सवार है लेकिन भगवान राम बिना रथ के हैं । विभीषण ने कहा कि बिना रथ के रावण कैसे जीता जाएगा ? रथ आवश्यक है। ऐसे में भगवान राम ने विभीषण से कहा:-
जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना (लंकाकांड चौपाई संख्या 79)
अर्थात जिस स्यंदन अर्थात रथ से युद्ध जीते जाते हैं, वह रथ कोई और ही होता है। तात्पर्य यह है कि युद्ध जीतने के लिए वस्तु-रूप में रथ की आवश्यकता अनिवार्य नहीं है। युद्ध साधन से नहीं अपितु जीवन-साधना से जीते जाते हैं। युद्ध में विजय मनुष्य का आत्मबल दिलाता है। व्यक्ति जिन विचारों की साधना जीवन भर करता है, संकट आने पर उस साधना की शक्ति से ही उसको विजय प्राप्त होती है। इसीलिए तो सोने की लंका के स्वामी रावण से एक पैदल वनवासी राम टकराने की सामर्थ्य रखते हैं।

यह कौन सी साधना है जिसके द्वारा व्यक्ति युद्ध लड़ता है ? यह कौन सा दूसरा रथ है, जिससे जीते जाने वाले युद्ध का उल्लेख भगवान राम कर रहे हैं ? भगवान राम ने विभीषण को समझाया कि वास्तविक रथ वह होता है जिसमें बल, विवेक, दम अर्थात इंद्रिय संयम तथा परहित के घोड़े लगे हुए होते हैं और उन घोड़ों को क्षमा, कृपा और समता की डोर से पकड़ा जाता है। यह ऐसा रथ होता है जिसके दो पहिए शौर्य और धैर्य होते हैं। सत्य और शील उसकी दृढ़ ध्वजा-पताका होती है। ईश्वर का भजन उस रथ का सारथी होता है। इसके अतिरिक्त भी भगवान राम ने अमल और अचल मन तथा यम और नियम के महत्व पर प्रकाश डाला और कहा कि ऐसा रथ और उस पर सवार योद्धा संसार में कोई भी युद्ध जीत सकता है। देखा जाए तो जीवन में हम बहुत बार साधनों को ही सफलता का मापदंड मान बैठते हैं। लेकिन जैसा कि महाभारत में भी उल्लेख मिलता है कि दुर्योधन तो केवल सेना चाहता था और अर्जुन अपने रथ के सारथी के रूप में केवल भगवान कृष्ण को साथ रखकर प्रसन्न थे। युद्ध वही जीतता है जिसके जीवन-रथ के सारथी भगवान होते हैं। ईश्वर का भजन ही मनुष्य के जीवन-रथ का सफल सारथी हो सकता है।
यद्यपि कुछ समय बाद देवताओं के राजा इंद्र ने अपना रथ भगवान राम के लिए भेजा और राम ने उस पर सवार होना स्वीकार कर लिया।

राम-रावण युद्ध अत्यंत भयंकर था । लक्ष्मण के बाणों से रावण मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़ा। इसी तरह हनुमान जी के मुष्टिका प्रहार से भी रावण मूर्छित हो गया था। लक्ष्मण जी ने रावण के रथ को तोड़कर उसके सारथी को मार डाला । जैसे-तैसे दूसरा रथ और दूसरा सारथी उसकी जान बचा कर लंका लेकर गया । इसी बीच रावण ने भी अपने पुत्र मेघनाद के समान तामसिक यज्ञ करके क्रूर शक्तियों को अर्जित करना चाहा लेकिन वानर-सेना ने रावण के कुटिल इरादों पर पानी फेर दिया।

सीधे-सीधे राम और रावण के युद्ध में भगवान राम ने रावण के सारथी और घोड़ों को मारकर उसके रथ को चूकनाचूर कर दिया। रावण दूसरे रथ पर चढ़ तो गया, लेकिन भीतर से खिसिया भी रहा था और गर्जना करने के बाद भी अंदर ही अंदर बल की दृष्टि से स्वयं को थका हुआ भी महसूस कर रहा था :-
गरजा अति अंतर बल थाका
तुरत आन रथ चढ़ि खिसिआना
(लंकाकांड चौपाई संख्या 91)

युद्ध में समस्या यह आ रही थी कि रामचंद्र जी तीस बाण चलाकर रावण के दसों सिर और बीसों भुजाएं काट तो देते थे लेकिन कटते ही वह फिर से नए लग जाते थे जिस कारण रावण की मृत्यु नहीं हो पा रही थी:-
काटतहीं पुनि भए नवीने। राम बहोरि भुजा सिर छीने ।। (लंकाकांड चौपाई संख्या 91) अर्थात राम ने बहुत बार रावण के भुजा और सिर छीना अर्थात काटे लेकिन कटते ही वह पुनः नवीन हो जाते थे।
रावण के पास मायावी शक्तियां थीं। उनमें से एक मायावी शक्ति यह थी कि वह अपने जैसे करोड़ों रावण निर्मित कर सकता था। उसने ऐसा ही किया। तुलसी लिखते हैं:-
दस दिशि धावहिं कोटिन्ह रावण। (लंकाकांड चौपाई संख्या 95)
रावण की इस माया को देख कर तो देवता भी भयभीत होने लगे। भगवान राम ने एक बाण से ही रावण की यह समस्त माया समाप्त कर दी। किंतु रावण का वध अभी भी नहीं हो पा रहा था।
जब तक रावण जीवित रहा, उसके पास मायावी शक्तियों की कमी नहीं रही। उसने माया से भूत और पिशाच का खेल खेलना आरंभ कर दिया । एक हाथ में तलवार दूसरे हाथ में मनुष्यों की खोपड़ी लेकर यह भयावह रूप वाले मायावी रक्त पीते हुए दिखाई पड़ रहे थे। भगवान ने रावण की यह माया भी एक ही बाण से समाप्त कर दी।

जब रावण किसी भी प्रकार से नहीं मर पा रहा था, तब विभीषण ने यह भेद की बात बताई कि रावण की नाभि में अमृत है, जिसके कारण वह नहीं मर पाता है :-
नाभि कुंड पियूष बस याकें। (लंकाकांड चौपाई संख्या 101)
उसके बाद भगवान राम ने रावण के ऊपर इकत्तीस बाण छोड़े। एक बाण से नाभि का अमृत सूखा तथा बाकी तीस बाणों से रावण के दस सिर और बीस भुजाऍं काट डाली गईं। :-
खींचि सरासन श्रवण लगि, छाड़े सर एकतीस। रघुनायक सायक चले, मानहु काल फनीस।। (लंकाकांड दोहा संख्या 102)
अर्थात हनुमान प्रसाद पोद्दार जी की टीका के शब्दों में “कानों तक धनुष को खींचकर श्री रघुनाथ जी ने इकत्तीस बाण छोड़े। वे बाण ऐसे चले, मानो कालसर्प हों।” रामचरितमानस की चौपाइयों के अर्थ को सरलता पूर्वक समझा देने के लिए हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को शत शत नमन।

धड़ फिर भी जीवित रहा। तब रामचंद्र जी ने बाण से उसके भी दो टुकड़े कर दिए। बस फिर क्या था ! रावण मृत्यु को प्राप्त होकर जमीन पर गिर पड़ा। मंदोदरी विलाप करने लगी और विलाप करते-करते उसने कहा :-
काल विवश पति कहा न माना। अग जग नाथ मनुज करि जाना।। (लंकाकांड चौपाई संख्या 103)
अर्थात काल के वशीभूत होकर हे पतिदेव ! आपने मेरा कहना नहीं माना तथा आप जग के स्वामी को मनुष्य ही समझते रहे।
भगवान की रावण-वध की लीला कोई साधारण मनुष्य का कार्य नहीं था। यह ईश्वर के सगुण साकार अवतार लेने की कथा है। क्योंकि जो मायावी शक्तियां रावण के पास आ चुकी थीं, उनका मुकाबला कोई साधारण व्यक्ति नहीं कर सकता था। लेकिन यह भी सत्य है कि भगवान के मनुष्य देह धारण करके धरती पर अवतरित होने के मूल में श्रेष्ठ और मर्यादित मानव जीवन शैली का निर्माण भी प्रमुख उद्देश्य था। सदाचार, सद्व्यवहार और सत्य के मूल्यवान गुणों को इसीलिए भगवान राम ने पग-पग पर मनुष्य को धारण करने का उपदेश दिया। वह नैतिक सद्गुणों से युक्त मनुष्य के निर्माण को सब प्रकार की राक्षसी प्रवृत्तियों पर विजय का आधारभूत उपाय मानते हैं। यही राम का संदेश है।
—————————————
लेखक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451

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