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1 May 2023 · 6 min read

*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ : दैनिक रिपोर्ट*

संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ : दैनिक रिपोर्ट
दिनांक 1 मई 2023 सोमवार प्रातः 10:00 से 11:00 तक

अरण्यकांड दोहा संख्या 11 से दोहा संख्या 26 तक का पाठ हुआ।

कथा-सार

भगवान राम ने दंडकारण्य स्थित पंचवटी में निवास किया। शूर्पणखा की कामुकता का समुचित प्रत्युत्तर। खर-दूषण वध हुआ। वास्तविक सीता अग्नि में सुरक्षित रहीं। आगे की कथा माया रूपी सीता के साथ संपन्न हुई।

कथा-क्रम

तुम्ह पावक महुॅं करहु निवासा। जौ लगि करौं निशाचर नासा।। जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पदधरि हिय अनल समानी।। निज प्रतिबिंब राखि तहॅं सीता। तैसइ शील रूप सुविनीता।। (अरण्यकांड चौपाई संख्या 23)
जब राम-रावण युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार होने लगी और सीता-हरण का समय निकट आया, तब भगवान राम ने सीता से कहा कि अब लीला आरंभ करने का समय आ गया है। तुम पावक अर्थात अग्नि में तब तक निवास करो, जब तक मैं निशाचरों का नाश नहीं कर देता। सुनकर सीता जी भगवान राम के चरणों को हृदय में धारण करके अनल अर्थात अग्नि में समा गईं। अपना प्रतिबिंब सीता जी ने बाहर रख दिया, जो हूबहू उनके ही जैसा था। तुलसीदास जी लिखते हैं:-
लछिमनहूॅं यह मरम न जाना। (चौपाई संख्या 23 अरण्यकांड)
लक्ष्मण ने भी यह मर्म नहीं जाना। अब भगवान की जिस लीला को सिवाय राम और सीता के लक्ष्मण तक भी नहीं जान पाए, उसे भला कोई अन्य व्यक्ति कैसे जान सकता था ? भगवान की लीला सर्वथा उचित रही। इसके दो कारण रहे। एक कारण तो यह था कि मनुष्य रूप में जो लीला हो रही है, अगर उसका रहस्य लक्ष्मण सहित अन्य सबको पता चल जाए तो फिर लीला का आनंद नहीं रहता। जिस तरह हम सिनेमा के पर्दे पर कोई फिल्म देखते हैं, उसकी कहानी का आनंद तभी तक है जब तक हमें रहस्य की बातों का पता नहीं होता है। ईश्वर को धरती पर सदाचार की रचना करनी तो थी, लेकिन उसमें स्वाभाविकता भी लानी थी।
दूसरा कारण यह था कि राम-रावण युद्ध में रावण का पक्ष अथवा प्रतिनिधित्व करने वाले जो राक्षस थे, वह अत्यंत मायावी हुआ करते थे। उन पर विजय प्राप्त करना लगभग असंभव था। साधारण विधि से कोई उन्हें मार नहीं सकता था। इसलिए भी मायावी शत्रुओं से लड़ते समय भगवान को अपनी माया का प्रयोग करना आवश्यक हो गया था।

राक्षस इतने अधिक मायावी थे कि जब भगवान राम उनके शरीर पर तीर चलाते थे, तब शरीर उनका कट जाता था। सैकड़ों टुकड़ों में बॅंट जाता था। लेकिन फिर भी वे उठ खड़े होते थे। जीवित हो जाते थे। कभी आकाश में उनकी भुजाएं और सिर उड़ते थे और कभी वह बिना धड़ के दिखते थे। तुलसीदास जी इस मायावी शक्तियों का वर्णन इन शब्दों में करते हैं:-
भट कटक तन सत खंड। पुनि उठत करि पाषंड।। नभ उड़त बहु भुज मुंड। बिनु मौलि धावत रुंड।। (अरण्यकांड दोहा वर्ग संख्या 19)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी की टीका के अनुसार : “योद्धाओं के शरीर कटकर सैकड़ों टुकड़े हो जाते हैं। वे फिर माया करके उठ खड़े होते हैं। आकाश में बहुत सी भुजाएं और सिर उड़ रहे हैं तथा बिना सिर के धड़ दौड़ रहे हैं।”
रावण-समूह के समस्त राक्षसों के साथ युद्ध में सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि साधारण मनुष्य की शक्ति से कोई उन पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता था। एकमात्र उपाय मनुष्य रूप में ईश्वर का अवतार लेकर अनंत शक्तियों के साथ दुराचारी सत्ता को चुनौती देना रह गया था। यह काम केवल सगुण रूप में धरती पर अवतरित साकार परमात्मा श्रीराम ही कर सकते थे। इसी के लिए वह परिस्थितियों का आश्रय लेकर वन के कठिन मार्ग की ओर गए थे।
राक्षसों के पास असाधारण मायावी शक्तियां थीं। मारीच को ही देखिए। वह राक्षस के शरीर से हिरण के शरीर-रूप में पलक झपकते ही परिवर्तित हो गया। हिरण भी कोई मामूली नहीं:-
कनक देह मणि रचित बनाई (अरण्यकांड चौपाई संख्या 26)
अर्थात उस मृग की सोने की देह मणियों से युक्त बनी हुई थी।
राक्षसों के पास अद्भुत मायावी शक्तियॉं थीं। तभी तो उन्होंने संसार भर में उत्पात मचा रखा था। सीता जी राक्षस मारीच की स्वर्णिम काया की माया में आ गईं। परिणाम यह निकला कि संसार की माया के स्वामी भगवान राम उस माया के चक्कर में पड़ गए, जिसके द्वारा आगे की कहानी लिखी जानी थी अर्थात सीता का हरण होना था।
चित्रकूट से चलकर भगवान राम जब उचित वन की तलाश में थे, तब वह अगस्त्य मुनि के आश्रम में आए थे। उनसे किसी उचित वन का पता पूछा। अगस्त मुनि ने बताया कि दंडकारण्य में एक पंचवटी नामक स्थान है, आप वहां निवास कर लीजिए । तब भगवान राम सीता और लक्ष्मण के साथ गोदावरी नदी के निकट पंचवटी में पर्णकुटी बनाकर रहे :-
गोदावरी निकट प्रभु, रहे पर्णगृह छाइ।। (अरण्यकांड दोहा संख्या 13)
पंचवटी में ही शूर्पणखा जो रावण की बहन थी, अचानक काम-भावना से पीड़ित होकर पहले राम के पास तदुपरांत लक्ष्मण के पास गई और अंततः जब तक वह कोई कठोर कदम उठा पाती; उससे पहले ही रामचंद्र जी के कहने पर लक्ष्मण ने उसके नाक-कान काट दिए।
उसके बाद वह अपने भाई खर-दूषण के पास गई जिनकी अत्यंत मायावी शक्तियां थीं। लेकिन रट एक ही थी कि हमें सीता को छीन लेना है । खर-दूषण की सेना आपस में कह रही थी :-
धरि मारहु तिय लेहु छुड़ाई।। (चौपाई संख्या 17 अरण्यकांड)
अर्थात हनुमान प्रसाद पोद्दार जी की टीका है कि “दोनों भाइयों को मार डालो और तिय अर्थात स्त्री को छीन लो”
खर-दूषण का भी यही कहना था:-
देहु तुरत निज नारि दुराई (दोहा वर्ग संख्या 18 अरण्यकांड)
अर्थात जो सीता तुमने दुराई अर्थात छुपा रखी है, वह हमें तुरंत दे दो ।
खर दूषण की भयंकर सेना पर विजय प्राप्त करना असंभव था । उन्हें तो मानो अमरत्व मिला हुआ था। वे मायावी शक्तियों के भंडार थे। मनुष्य रूप में अवतरित भगवान राम की माया से ही राक्षसों की माया पर विजय प्राप्त हो सकी। भगवान राम ने कुछ ऐसी माया रची कि खर-दूषण की सेना आपस में ही एक दूसरे को राम के रूप में देखने लगी और राम को मारने के चक्कर में आपस में ही लड़ कर मर गई। यह मायावी राक्षसों के ऊपर भगवान की माया से ही विजय प्राप्त हुई थी ।
देखहिं परस्पर राम करि संग्राम रिपु दल लरि मरयो।। (दोहा संख्या 19)
अर्थात हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के शब्दों में “शत्रुओं की सेना एक दूसरे को राम रूप देखने लगी और आपस में ही युद्ध करके लड़ मरी”।

वन में जहॉं एक ओर भगवान की लीला से राक्षसों का क्रमशः अंत हो रहा था, वहीं दूसरी ओर कुछ अध्यात्म की चर्चा भी राम और लक्ष्मण के बीच चलती रही। दंडकारण्य में भगवान राम ने लक्ष्मण को गूढ़ आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान किया। उन्होंने लक्ष्मण को समझाया:-
मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया।। गो गोचर जहॅं लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई।। (अरण्य कांड दोहा संख्या 14)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के शब्दों में मैं और मेरा, तू और तेरा -यही माया है। जिसने समस्त जीवों को वश में कर रखा है। गो गोचर अर्थात इंद्रियों के विषयों को और जहां तक मन जाता है, वह सब माया ही जानो।
अध्यात्म का यही सार है। अगस्त्य मुनि ने भी भगवान राम से अध्यात्म की बहुत गहरी बात कही :-
यद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता। अनुभव गम्य भजहिं जेहिं संता।। (अरण्यकांड दोहा संख्या 12)
अर्थात यद्यपि ब्रह्म अखंड और अनंत है, तो संतो के द्वारा भजने पर अनुभव-गम्य भी है। इसका तात्पर्य यह होता है कि परमात्मा को इंद्रियों से अनुभव नहीं किया जा सकता लेकिन जो उसका अनुभव करना चाहते हैं वह संत हृदय पाकर अथवा संतों के संपर्क में आकर अथवा सत्संग और सद्-ग्रंथों के गहन अध्ययन के द्वारा परमात्मा का अनुभव कर सकते हैं।
रामचरितमानस जहॉं एक ओर राक्षसी शक्तियों पर परमात्मा की कृपा से परमात्मा द्वारा विजय की अलौकिक गाथा मनुष्य शरीर रूप में प्रस्तुत कर रही है, वहीं यह सर्वव्यापक और निराकार परमात्मा के अनुभव कर सकने के रहस्यों पर भी पग-पग पर प्रकाश डालकर हमारा कल्याण कर रही है।
—————————————
लेखक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451

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