*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ : दैनिक रिपोर्ट*
संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ : दैनिक रिपोर्ट
दिनांक 29 अप्रैल 2023 शनिवार प्रातः 10:00 से 11:00 तक (रविवार अवकाश)
आज अयोध्याकांड दोहा संख्या 312 से 326 तक का पाठ होकर तदुपरांत अरण्यकांड दोहा संख्या 10 तक का पाठ हुआ। आज के पाठ में आर्य समाज (पट्टी टोला) रामपुर के प्रमुख स्तंभ श्री कौशल्या नंदन जी तथा परम सात्विक दंपत्ति श्री अशोक कुमार अग्रवाल तथा श्रीमती आशा अग्रवाल की मुख्य सहभागिता रही। श्रीमती मंजुल रानी भी उपस्थित रहीं।
कथा-सार
चित्रकूट में भगवान राम ने अपनी चरण पादुका भरत को प्रदान की। इंद्र के पुत्र जयंत का अभिमान टूटा । धरती को राक्षस-विहीन करने की प्रतिज्ञा भगवान राम ने ली।
कथा-क्रम
अयोध्या में रामराज्य तो सचमुच उसी दिन आ गया, जब चित्रकूट में भगवान राम ने अपनी चरण पादुका भरत को दी और भरत ने उन्हें सिर पर रखकर अयोध्या ले जाकर राज सिंहासन पर आसीन कर दिया:-
प्रभु करि कृपा पॉंवरी दीन्हीं। सादर भरत शीश धरि लीन्हीं।। (अयोध्याकांड चौपाई संख्या 315)
सिंहासन प्रभु पादुका, बैठारे निरुपाधि।। (दोहा संख्या 323 अयोध्याकांड)
राजा वही श्रेष्ठ होता है जिसे राजपद का मोह नहीं होता । भरत को राजपद की तनिक भी इच्छा नहीं थी । लेकिन राम ने युक्तिपूर्वक उन्हें अपनी चरण पादुका अर्थात पॉंवरी अथवा खड़ाऊं दे दी । इससे भरत का यह आग्रह भी नहीं टूटा कि वह राजपद पर बैठना नहीं चाहते तथा विश्व को एक ऐसा राजा भी मिल गया जो राजा होते हुए भी राजकाज को रामकाज मानते हुए निर्लोंभी वृत्ति से ही काम करता रहा। भरत ने पादुका को राजसिंहासन पर बिठा दिया। यह विश्व इतिहास की अनूठी घटना है।
यहां तक होना भी कोई बड़ी बात नहीं थी। असली बात यह हुई कि भरत ने राजकाज का संचालन तो किया किंतु राजा को किस प्रकार विलासिता से परे रहकर एक तपस्वी की भांति जीवन बिताना चाहिए, यह आदर्श संसार के सामने प्रस्तुत करना भारत का सबसे बड़ा योगदान है। भरत ने नंदीग्राम में पर्णकुटी बनाकर उसमें निवास किया। तुलसी लिखते हैं :-
नंदिगांव करि पर्णकुटीरा। कीन्ह निवासु धर्मधुर धीरा।। (चौपाई संख्या 323 अयोध्या कांड)
भवन का नाम ‘पर्णकुटी’ रखने मात्र से उद्देश्य पूरा नहीं होता। देखने वाली बात यह है कि पर्णकुटी में भरत किस प्रकार रहते थे। तुलसीदास ने भरत के रहन-सहन का चित्र प्रस्तुत किया है। लिखते हैं :-
जटाजूट सिर मुनिपट धारी। महि खनि कुश सॉंथरी सॅंवारी।। असन बसन बासन व्रत नेमा। करत कठिन ऋषिधर्म सप्रेमा।। (अयोध्याकांड चौपाई संख्या 323)
अर्थात सिर पर जटाजूट है, मुनियों के पट अर्थात वस्त्र धारण किए हुए हैं, मही अर्थात पृथ्वी पर कुश की सॉंथरी अर्थात आसन बिछा हुआ है। ऋषि धर्म को जो कठिन तो होता है लेकिन उसे प्रेम पूर्वक भरत निर्वहन कर रहे हैं ।
तुलसी आगे लिखते हैं :-
भूषण बसन भोग सुख भूरी। मन तन वचन तजे तिन तूरी।। (चौपाई संख्या 323 अयोध्या कांड)
उपरोक्त चौपाई का अर्थ हनुमान प्रसाद पोद्दार जी इस प्रकार बताते हैं :”गहने कपड़े और अनेक प्रकार के सुख भोगों को मन तन वचन से तृण तोड़कर-प्रतिज्ञा करके त्याग दिया।” वास्तव में तृण तोड़कर अथवा तिन तूरी का अर्थ बिना हनुमान प्रसाद जी की टीका के समझ पाना कठिन था। हृदय से आपकी टीका को शत-शत नमन।
इस प्रकार से नंदीग्राम में पर्णकुटी बनाकर उसमें रहने वाले भरत के चरित्र को उपमा देकर तुलसीदास जी बहुत सटीक वर्णन करते हैं :-
तेहिं पुर बसत भरत बिनु रागा। चंचरीक जिमि चंपक बागा।। (अयोध्याकांड चौपाई संख्या 323)
अर्थात अयोध्या में चौदह वर्ष तक भरत का राजा बनकर रहना इस प्रकार था जैसे चंचरीक अर्थात भौंरे का चंपक अथवा चंपा के बाग में रहना होता है। यहां तुलसीदास जी प्रकृति की इस सत्यता का आश्रय लेकर उपमा का प्रयोग कर रहे हैं कि भंवरा सब प्रकार के फूलों से स्पर्श-रस लेता है लेकिन चंपा के फूल पर आकृष्ट नहीं होता। तात्पर्य यह है कि अयोध्या में सारे राजसी सुख-वैभव के विद्यमान होते हुए भी भरत जी किसी प्रकार से भी विलासिता पूर्ण जीवन बिताने के पक्षधर नहीं थे। वह एक तपस्वी की भांति राजा का जीवन बिता रहे थे। उनकी आंखों के सामने राम लक्ष्मण और सीता के वन में निवास करने का चित्र सदैव उपस्थित रहता था। जहां एक ओर भरत जी राम के समान वन में रहने का अभ्यास अयोध्या नगर में रहते हुए निभा रहे थे, वहीं दूसरी ओर वह इस बात का मार्गदर्शन भी विश्व को कर पा रहे थे कि राजा को किस प्रकार का जीवन व्यतीत करना चाहिए । अपने व्यक्तिगत सुख सुविधा के लिए राजकोष को व्यय करना एक राजा को शोभा नहीं देता । उसे तो कम से कम खर्च में अपनी दिनचर्या को ढालना होता है । उसे यह अनुमति नहीं मिल सकती कि वह स्वेच्छाचारी होकर अपनी विलासिता के लिए राजकोष को लुटा दे, सुंदर शयनकक्ष बनवाए और सोने-चांदी के बर्तनों में भोजन करे अथवा बहुमूल्य रत्न और आभूषणों से अपने शरीर को सजाए। राजा के लिए यही उचित है कि वह राजकोष का स्वामी बनकर नहीं अपितु रखवाला मात्र बन कर रहे। जिस तरह एक माली बाग की देखभाल तो करता है लेकिन वह बाग में लगे हुए फलों को मनमाने ढंग से तोड़कर नहीं खा सकता, उसी तरह राज्य सत्ता पर आसीन राज्य के स्वामी का व्यवहार होना चाहिए । संसार में अधिकांशत: दुर्भाग्य से ऐसे ही राजनेता अथवा राजा हुए हैं जिन्होंने अपनी प्रजा और राज्य को तो गरीबी में जीवन बिताने के लिए विवश किया है तथा अपने लिए सुख-सुविधाओं से भरे हुए राजमहल निर्मित करते हुए राजकोष का पैसा लुटाने में कोई संकोच नहीं किया । ऐसे में भरत का जीवन और चरित्र तथा एक राजा के रूप में उनका सादगी, मितव्ययिता और साधारण मनुष्य की भांति जीवन व्यतीत करने का संकल्प इस बात की प्रेरणा दे रहा है कि यह जो चौदह वर्ष की अवधि तक का भरत का राज्य अयोध्या में रहा, वह एक प्रकार से रामराज्य की सुंदर भूमिका का निर्माण था। ऐसा रामराज्य वास्तव में श्रेष्ठ राज्य व्यवस्था का आदर्श है । भरत जैसे राजा ही राजाओं के लिए प्रेरणा के स्रोत हो सकते हैं । भरत का राजा रहते हुए तपस्वी जीवन बिताना राजाओं अथवा राजनेताओं के लिए एक आदर्श माना जाना चाहिए।
अरण्यकांड का आरंभ तुलसीदास जी संस्कृत में लिखे हुए दो श्लोकों से करते हैं। पहले श्लोक में शंकर जी की वंदना है । उन शंकर जी की जो रामचंद्र जी के अत्यंत प्रिय हैं। दूसरे श्लोक में श्री रामचंद्र जी की वंदना है, जो सीता जी और लक्ष्मण जी के साथ वन में चल रहे हैं।
वन में सारे प्रसंग कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलने के ही होते हैं । ऐसे में प्रेमरस की सृष्टि तुलसीदास जी एक स्थान पर करते हैं । इससे राम और सीता के परस्पर प्रेम की गहराइयों पर भी प्रकाश पड़ता है। चौपाई इस प्रकार है :-
एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषण राम बनाए।। सीता पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक शिला पर सुंदर।। (अरण्यकांड दोहा संख्या 1 से पूर्व)
अर्थात एक बार भगवान राम कुसुम अर्थात फूल चुनकर लाए। अपने हाथों से आभूषण बनाए। सीता जी को वह आभूषण पहनाए। यह सब कार्य स्फटिक की सुंदर शिला पर बैठकर राम ने किया।
इसी समय एक कथारस में गोस्वामी तुलसीदास जी पाठकों को प्रवेश कराते हैं । हुआ यह कि भाग्य का मारा इंद्र का पुत्र जयंत इस अवसर पर रंग में भंग करता है । कौवे का वेश धरकर सीता जी के पैर में चोट मार देता है। रक्त की धारा बह निकलती है। तब भगवान राम का बाण उसका पीछा करता है। संसार में कोई उसे बचाने वाला नहीं मिलता। मृत्यु निकट देखकर नारद को दया आ जाती है । वह जयंत को समझाते हैं कि भगवान राम की शरण में जाओ और उनसे रक्षा की गुहार करो । जयंत ने ऐसा ही किया और तब भगवान राम ने उसके प्राण नहीं लिए अपितु केवल एक आंख से ही अंधा अर्थात काना बनाकर छोड़ दिया।
कथा बताती है कि मर्यादा में रहना ही सबके लिए उचित होता है । जयंत के पिता भले ही देवताओं के राजा के पद पर आसीन थे, लेकिन गलत कार्य करने पर हर व्यक्ति को सजा मिलती है और उससे बचा नहीं जा सकता।
चित्रकूट में कुछ समय बाद राम ने देखा कि यहां जान-पहचान बहुत ज्यादा हो गई है । इसलिए उन्होंने कहीं और चलने का निश्चय किया। वन के कठिन जीवन को जीने वाले व्यक्ति के लिए ऐसा निर्णय सर्वथा उचित है । एक स्थान पर ज्यादा ठहरने से वह ‘वन’ नहीं रहता अपितु ‘घर’ बन जाता है।
चित्रकूट से चलते समय राम और सीता अत्रि मुनि से मिले। अत्रि मुनि ने राम की भरपूर स्तुति की, जिसे तुलसीदास जी ने संस्कृत के बारह छंदों में अत्यंत आस्था के साथ लिखा। तदुपरांत अत्रि मुनि की पत्नी अनुसूया ने सीता जी की प्रशंसा करते हुए बताया कि :-
धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परखिए चारी।। (अरण्यकांड चौपाई संख्या 4)
उपरोक्त चौपाई वास्तव में सीता जी की प्रशंसा ही है क्योंकि विपत्ति के समय धीरज धर्म और मित्र के साथ ही नारी की भी परख होती है। जिस प्रकार से सीता जी राम के साथ कठोर तपस्या के पथ पर जीवनसंगिनी के रूप में चलीं, उससे वह उसी प्रकार निखर कर शुद्ध सिद्ध हुईं, जिस प्रकार सोना आग में पड़कर अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध करता है।
चित्रकूट से चलकर दूसरे वन की ओर जाते समय मार्ग में विराध राक्षस मिला, जिसे रामचंद्र जी ने चुटकियों में मार डाला। तत्पश्चात आगे चलकर मुनि शरभंग से रामचंद्र जी की भेंट हुई। वह तपस्वी थे। रामचंद्र जी के दर्शनों की प्रतीक्षा कर रहे थे। रामचंद्र जी से मिलने के बाद उन्होंने योग-अग्नि से अपने शरीर को जला डाला । इससे पहले उन्होंने इस दोहे के द्वारा भगवान राम की वंदना की :-
सीता अनुज समेत प्रभु, नील जलद तनु श्याम। मम हिय बसहु निरंतर, सगुण रूप श्रीराम।। (अरण्यकांड दोहा संख्या 8)
अर्थात सीता और छोटे भाई लक्ष्मण के सहित हे प्रभु! नीले बादलों के समान श्याम वर्ण के शरीर वाले हे सगुण रूप में साक्षात परम ब्रह्म परमेश्वर श्री राम ! आप मेरे हृदय में निरंतर बसा करें।
वन में विचरण करते समय मार्ग में एक स्थान पर मुनियों के साथ जब भगवान राम थे, तब उन्हें हड्डियों का ढेर दिखाई दिया । पूछने पर पता चला कि यह राक्षसों की करतूत है। राक्षस लोग मुनियों को खा जाते हैं। यह सब हड्डियों का ढेर उन तपस्वी मुनियों का ही है। यह सुनकर भगवान राम की आंखों में आंसू आ गए।:-
निसिचर निकर सकल मुनि खाए। सुनि रघुवीर नयन जल छाए।। (अरण्यकांड चौपाई संख्या 8)
संसार में मनुष्य रूप में अवतार लेने का अभिप्राय केवल नेत्रों में जल भर लेने से पूरा नहीं होता । इसके लिए तो राक्षसों से युद्ध करना ही पड़ता है। भगवान राम ने उसी समय प्रतिज्ञा ली। हाथ ऊपर उठाए। तुलसी लिखते हैं कि राम कहते हैं :-
निसिचर हीन करउॅं महि, भुज उठाई प्रण कीन्ह। (अरण्य कांड दोहा संख्या 9)
अर्थात हाथ उठाकर भगवान राम ने प्रतिज्ञा की कि मैं इस धरती को निसिचर अर्थात राक्षसों से रहित कर दूंगा।
आगे चलते हुए सुतीक्ष्ण नाम का मुनि अगस्त का शिष्य भगवान राम को मिला । उसकी भगवान राम के प्रति एकनिष्ठ आस्था थी । भगवान राम ने उसको भक्ति का फल प्रदान किया और उसके हृदय में प्रकट हो गए :-
अतिशय प्रीति देखी रघुवीरा। प्रगटे हृदय हरन भव भीरा।। (अरण्यकांड चौपाई संख्या 9)
हृदय में परमात्मा का प्रकट हो जाना किस प्रकार का अनुभव होता है, इसके बारे में तुलसीदास जी चित्र खींचते हैं:-
मुनि मग माझ अचल हुई बैसा। पुलक शरीर पनस फल जैसा।। (अरण्यकांड चौपाई संख्या 9)
अर्थात हनुमान प्रसाद पोद्दार जी की टीका के शब्दों में “हृदय में प्रभु के दर्शन पाकर मुनि मग अर्थात मार्ग के माझ अर्थात मध्य में अचल स्थिर होकर बैठ गए । उनका शरीर रोमांच से पनस अर्थात कटहल के फल के समान कंटकित हो गया।”
यहां पर तुलसीदास जी की साधना का अनुभव पाठकों को पढ़ने को मिल रहा है। जैसे ही व्यक्ति ध्यान की उच्च अवस्था में प्रवेश करता है, वह जहां है और जैसा है उसी स्थिति में अविचल होकर बैठ जाता है। उसका शरीर किस प्रकार से होता है, इसके बारे में तुलसीदास जी कहते हैं कि शरीर रोमांचित होकर कटहल के फल के समान कांटो वाला हो गया । इसका अर्थ यह है कि चेतना और सजगता अत्यंत उच्च कोटि की व्यक्ति के भीतर आ जाती है। वह संसार में रहता तो है लेकिन संसार के स्पर्श से परे हो जाता है। वह आत्मानंद में विभोर हो उठता है तथा वाह्य जगत की सुध-बुध खो देता है । तुलसीदास इस बात को भली प्रकार जानते थे। इसीलिए तो वह अगली चौपाई में इस बात को बताते हुए लिखते हैं :-
मुनिहि राम बहु भांति जगावा। जाग न ध्यान जनित सुख पावा।। (अरण्यकांड चौपाई संख्या 9)
अर्थात भगवान राम ने अपने शरीरधारी रूप से सुतीक्ष्ण को जगाने का प्रयास किया लेकिन वह इसलिए नहीं जागा क्योंकि वह ध्यान के अलौकिक आनंद में निमग्न था। यह सब तुलसीदास जी की योग साधना और ध्यान की ऊंचाइयों को स्पर्श कर सकने के कारण ही संभव हो रहा है कि पाठकों को ध्यान मार्ग की अवस्थाओं का दर्शन चौपाइयों के माध्यम से अत्यंत सरलता पूर्वक उपलब्ध हो पा रहा है। रामचरितमानस जहां एक ओर राक्षसी शक्तियों पर विजय प्राप्त करने के संघर्ष को प्रेरणा देने वाला ग्रंथ है, वहीं दूसरी ओर इसमें पग-पग पर सर्वव्यापक तथा निराकार परमात्मा की ध्यान-साधना द्वारा आराधना के गूढ़ सूत्र भी पाठकों को प्राप्त हो रहे हैं। यह सब व्यक्ति को जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य आत्मानंद की प्राप्ति में सहायक प्रवृतियां हैं।
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लेखक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451