संध्या
शीत की संध्या सुनहरी धूप से ,
दे रही आभास कोमल स्नेह का ।
शनैःशनैः लेती विदा मद्धिम हुई ,
सकुचती सी पथ लिए निज गेह का ।
स्वच्छ निर्मल गगन नील विशाल में ,
तारकों के दल बिछाते रोशनी ।
और आता देखकर रजनी पति को ,
मुदित हैं नक्षत्र पाकर चाँदनी ।।
ओढ़कर ज्यों निशा श्यामल नव वसन
स्वप्न नयनों में दमकती देह का ।
शनैःशनैः लेती विदा मद्धिम हुई ,
सकुचती सी पथ लिए निज गेह का ।।
छा गई माधुर्य की मोहक छटाएँ ,
घुल गई वातावरण में गंध सी ।
सुप्त तन में स्वांस और प्र – स्वांस की
सरित मंथरता लिए हो मंद सी ।।
ओस जल जीवन सुधा के साथ में
ऊर्जित होकर छिटकता मेह का ।
शनैःशनैः लेती विदा मद्धिम हुई ,
सकुचती सी पथ लिए निज गेह का ।।