संदेह भरी निगाहें
कहते हैं कि कई शताब्दी बीत जाते हैं
जीवन के असली रंग ढ़ंग को बदलने में
वर्त्तमान सामाजिक परिवेश को भी एक
नये प्रकार के अलग ही रुप में ढ़लने में
पर ऐसा कहाँ हाेता है अब जब से मैंने
अपना होश संभाला है और अब तक में
समय तो बहुत लम्बी दूरी तय कर ली है
मेरे सामने ही ताे देखते देखते सारा कुछ
जैसे पहले से बिल्कुल ही बदल गया है
कोई पुरानी बात लेकर जब कभी भी मैं
अपने ही बच्चाें के पास में बैठता हूँ तो
उनके चेहरे का रंग ही बदलने लगता है
उन्हें अन्दर से लगता है कि मैं कहीं उन्हें
एकदम बेवकूफ ही तो नहीं बना रहा हूँ
उनकी आँखें निरंतर मेरी आँखों में और
मेरी कही गई सारी बातों में आश्चर्य भरे
अंदाज में मेरे झूठ को तलाश रही होती
जिससे मैं बिल्कुल नि:शब्द हो जाता हूँ
मुझे मालूम है कि जिस हवा में अभी वो
अपनी सांसें ले रहा है वहाॅं पौराणिकता
भावनात्मकता अनुशासन एवं सामाजिक
पहलुओं पर साकारात्मक सोच के लिये
एक अलग ही मानक गढ़ा गया है जिसमें
जगह कहाँ है कुछ और अटाने के लिये
उनके संदेह भरी भाव भंगिमा में कुछ भी
विश्वास दिलाना वश की बात नहीं शायद
जिससे मेरी लड़खड़ाती हुई आवाज भी
मेरा साथ न दे फुसफुसाहट में बदल जाती