संत कबीर
हंस किया करता अलग क्षीर और नीर था
खिचड़ी भाषा बोलता था संत वो कबीर था
पाला पोसा नीरू नीमा ने बड़े ही प्यार से
पर खफ़ा रहा सदा वो दुनिया के बजार से
होकर सगुण वो देखिए निर्गुण को मानता रहा
अंधभक्ति करता न था सत्य जानता रहा
खर थी उसकी बानी परेशान सारा तंत्र था
शिष्य रामानन्द का था राम नाम मंत्र था
बहती दरिया की वो देखो उल्टी धारा कर गया
मन्दिर और मस्जिदों पे व्यंग करारा कर गया
पाखंडियों के वास्ते किफ़ायती नहीं रहा
जात पाँत का कभी हिमायती नहीं रहा
जब तलक रहा वो सबकी पोल खोलता रहा
निडर था ऊँच-नीच के खिलाफ़ बोलता रहा
घर जुलाहे के पला पर राम राम कर रहा
संजय कबीर संत को दिल से प्रणाम कर रहा